Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४०/गो, सा. जीवकाण्ड
गाथा २६२-२६३
संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के ही मन, वचन और काय ये तीन योग होते हैं। संज्ञी जीवों की संख्या देवों से कुछ अधिक कही गई है। बस पर्याप्त राशि में तीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंजी पंचेन्द्रिय जीव भी गभित है। जिनके वचन और काय ये दो योग होते हैं। अतः स पर्याप्त राशि के प्रमाण (प्रतरांगुल के संख्यानवें भाग से भाजित जगत्प्रतर)3 में से संक्षी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण घटाने से शेष द्वीन्द्रियादि असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों तक की संख्या शेष रह जाती है जो वचन ब काय योगी होते हैं। समस्त संसारी जीवराशि में से तीन योगबाले और दो योग वाले जीवों की संख्या घटाने पर शेष मात्र एक काययोगी जीवों की संख्या रह जाती है जो अनन्त है।'
इस प्रकार इस गाथा द्वारा वियोगी द्वियोगी और एकयोगी जीवों की संख्या का कथन किया गया है। तीन योगी और दो योगी जीव असंख्यात हैं और एक योगी जीव अनन्त हैं ।
अंतोमुहत्तमेला चउमरगजोगा कमेण संखगुणा । तज्जोगो सामगं चउवचिजोगा तदो दु संखगुरगा ।।२६२।। तज्जोगो सामण्णं कानो संखाहदो तिजोगमिदं ।
सगरमासानिमा मगाशगंगुणे दु सगरासी ॥२६३॥ गाथार्थ-पृथक-पृथक तथा सामूहिक रूप से चारों मनोयोगों का काल अन्तर्मुहूर्त है, किन्तु क्रम से संख्यातगुणा-संख्यातगुणा है। उन चारों कालों के जोड़ रूप सामान्य मनोयोग काल से चारों बचनयोगों का काल संख्यात गुणा है। चारों वचनयोगों के जोड़ रूप काल अर्थात् सामान्य वचनयोग के काल से काययोग का काल संख्यातगुणा है। तीनों योगों के जोड़ रूप काल से तीन योग वाली राशि को विभक्त करके अपनी-अपनी राशि के कालसे गुणा करने पर अपनी-अपनी राशि का प्रमाण प्राप्त होता है ।।५६२-५६३॥
विशेषार्थ - काल के अनुसार योग में जोबसंख्या होती है, क्योंकि योगकाल में ही तत् योग सम्बन्धी जीवों का संचय होता है। चारों मनोयोग और सामान्य मनोयोग तथा चारों वचनयोग ब सामान्य बचनयोग का काल क्रम से संख्यात गुणा है जो इस प्रकार है-सत्यमनोयोग का काल सबसे स्तोक है। भृषामनोयोग का काल उससे संख्यात गुणा है। उससे उभय मनोयोग का काल संख्यात गुणा है । उस से अनुभव मनोयोग का काल संख्यात गुणा है। इससे सामान्य मनोयोग का काल विशेष अधिक है। उससे सत्यवचनयोग का काल संख्यात गुणा है। उससे मृषा बचन योग का काल संन्यात गुणा है। उससे उभय वचनयोग का काल संख्यात गुणा है। उससे अनुभय वचनयोग का काल संख्यातगुणा है। उससे सामान्य वचनयोग का काल विशेष अधिक है। उससे काययोग का काल संख्यात गुणा है ।
मनोयोग, वचनयोग और काययोग के कालों के जोड़ से तीन योगवाली राशि को जो मात्रिक
१. "मणिपयाणुवादगण मग मिक्लाइट्ठी दबपमाणेण केवडिया देवेहि सादिरेयं ।।१:५।"च.पु. ३ पृ. ४८२ || २. "दीन्द्रिवादयस्वमाः ॥१४।।" [तत्त्वार्थ मूत्र न. २]। ३. "पदग्गुलस्स संघज्जाद भागेरा जगपरे भागे हिदे तमकाइयपाता भवति ति वुत्तं भर्वाद ।" [घवल पु. ३ पृ. ३६२] । ४. "एदे दो वि रासी प्रो अणता।" {धवल पु. ३ पृ. ३६५] । ५. घबल पु. ३ पृ. ३८८ ।