Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २८३
कषायमार्गणा/३५५
कषायों के बन्ध और उदय के युगपत् अभाव के प्रति प्रत्यासत्ति नहीं है, इस बात को बतलाने के लिए क्रोध आदि प्रत्येक पद के साथ संज्वलन शब्द लगाया गया है।
शङ्का--असंख्यात लोकप्रमाण किस प्रकार हैं ?
समाधान-उदयस्थानों की विशेषता की अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं, क्योंकि तीव, तीव्रतर, मन्द, मन्दतर इत्यादि अनेक भेदों के उदय में आने की अपेक्षा चारित्रमोहनीय कर्मप्रकृतियों के असंख्यात लोकप्रमाण भेद हो जाते हैं।
शङ्का--क्रोध किसे कहते हैं ? समाधान-क्रोध, कोप, रोष आदि क्रोध रूप परिणाम हैं। कहा भी है
कोहो य कोव रोसो य अक्खम संजलण कलह बढी य ।
झंझा बोस विवावो बस कोहेयढ़िया होति ॥१॥ - क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, वृद्धि, झंझा, द्वेष और विवाद ये दस क्रोध के पर्यायवाची शब्द जानने चाहिए। क्रोध, कोप और रोष ये गाब्द सुबोध हैं क्योंकि ये ऋध, कुप् भीर रुष धातु से बने हैं। क्षमा रूप परिणाम का न होना अक्षमा है। इसका दूसरा नाम अमर्ष है । जो भले प्रकार जलता है, वह संज्वलन है, क्योंकि और
काले घाला होने से क्रोध अग्नि है। कलह का अर्थ प्रतीत (ज्ञात) है। क्रोध से पाप, अयश, कलह और बैर आदि वृद्धि को प्राप्त होते हैं इसलिए क्रोध का नाम वृद्धि है, क्योंकि सभी अनर्थों की जड़ क्रोध है । तीवतर संवलेश परिणाम का नाम झंझा है। उसका हेतु होने से क्रोध-कषाय का नाम भी झंझा है । द्वेष का अर्थ अप्रीति है, आन्तरिक कलुषता इसका तात्पर्य है । बिरुद्धवाद का नाम विवाद है। स्पर्धा और संघर्ष इसके नामान्तर हैं। इस प्रकार ये दस क्रोध के पर्यायवाची शब्द हैं।'
शङ्का-मान किसे कहते हैं ? समाधान-माण मद वप्प थंभो उपकास पगास तध समुषकस्तो ।
प्रत्तुक्करिसो परिभव अस्सिव दसलक्षणो मारो ॥२॥ —मान, मद, दर्प, स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष, आत्मोत्कर्ष, परिभव और उसिक्त, इन दस लक्षण वाला मान है। जाति आदि के द्वारा अपने को अधिक (बड़ा) मानना मान है। उन्हीं जाति ग्रादि के द्वारा पाविष्ट हुए जीव का मदिरापान किये हुए जीव के समान उन्मत्त होना मव है। मद से बड़े हुए अहंकार का दर्प होना वर्ष है। सन्निपात अवस्था में जिस प्रकार मनुष्य स्खलित
१. धवल पु. ६ पृ. ४५ । २. "पुनःसर्वेऽप्युदयस्थानविशेषापेक्षया प्रसंख्यातलोकप्रमिता भवन्ति । कुतः? तत्कारणचारित्रमोहनीयोत्तरोत्तरप्रकृतिविकल्पानामसंख्याल लोकमात्रत्वात ।" [ कर्मप्रकृति ग्रन्थ गाथा ६१ टीका , ३२ (ज्ञानपीठ)] । ३. जयधवल पु. १२ वंजरणे परिणयोगद्दार' पृ. १८६ गा. १। ४. जयधवल पृ. १२ पृ. १६६-२८७, "क्रोध: कोपो रोष: संज्वलनमाक्षमा तथा कलहः । झंझा-द्वेष-विवादो वृद्धिरिति क्रोधपर्यायाः ॥१||" ५. जयधवल पु. १२ 'बजरणे अरिणयोगद्दार' पृ. १८७ गा. २ ।