Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाचा २६४-२८७
कायमार्गरगा/३५६
सेल टिकट्टवेत्ते णियभेएगणुहरंतो माणो । णारयतिरियण रामरगईसु उप्पायनो कमसो ॥२८॥ वेणुधमूलोरम्भयसिंगे गोमुत्तए य खोरप्पे । सरिसीमाया णारयतिरियरगरामरगईसु खिवि जियं ।।२८६।। किमिरायचक्कतणुमलहरिहराएरण सरिसनो लोहो ।
गारयतिरिक्खमाणुसदेवेसुप्पायनो कमसो ॥२८७।।' गाथार्थ-क्रोध चार प्रकार का है-पत्थर की रेखा के समान, पृथिवी की रेखा के समान, लिरेखा सहश और जलरेखा सदश । ये चारों प्रकार के क्रोध क्रम से नरक, तिर्यच, मनुष्य तथा देवगति में उत्पन्न करने वाले हैं ।। २८४॥ मान भी चार प्रकार का है-पाषाण सदृश, अस्थि सदृश, काष्ठ सदृश, बैंत सदृश। ये भी क्रमसे नारक, तिर्यच, मनुष्य तथा देवगति में उत्पादक हैं ।।२८५॥ माया भी चार प्रकार की है-बाँस की जड़ सदृश, मेढ़े के सींग के सदश, गोमूत्र सदृश और खुरपा सदृश । यह माया भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में उत्पत्ति की कारण है ।।२८६॥ लोभ भी चार प्रकार का है-इमिग महण, जमाल हमा, पीरल जग बौर हल्दी के रंग के समान । यह भी क्रम से नरक, तिर्यंच मनुष्य और देवगति में उत्पत्ति का कारण है ।।२८७।।
विशेषार्थ- श्री भगवान गुरगधर भट्टारक विरचित कषायपाहुड के चतुस्थान नामक पाठवें अधिकार में गाथा २, ३ व ४ के द्वारा इस विषय का कथन किया गया है। वे गाथाएं इस प्रकार हैं
गग-पुढवि-धालु गोदयराईसरिसो चउग्यिहो कोहो । सेलघण-अट्ठि-दारुम-लदासमाणो हदि मारणो ॥२॥ वसजिण्हगसरिसी मेंह बिसाणसरिसी य गोमुत्ती । अवलेहणी समारणा माया चि चउन्विहा भरिणवा ॥३॥ किमिरागरत्तसमगो अक्खमलसमो ये पंसुलेखसमो ।
हालिद्दवत्थसमगो लोभोवि चविहो भरिणवो ॥४॥ क्रोध चार प्रकार का है-नगराजिसदृश, पृथिवीराजि सदृश, बालुकाराजि सदृश और उदकराजि सदृश | मान भी चार प्रकार का है- शैलपन समान, अस्थि समान, दारु समान और लता समान । माया भी चार प्रकार की है—बाँस की जड़ के सदृश, मेढे के सींग के सदृश, गोमूत्र के सदृश और अवलेखनी के सदृश । लोभ भी चार प्रकार का है-कृमिराग के सदृश, अक्षमल के सदृश, पांशुलेप के सदृश और हारिद्र वस्त्र के सदृश ।।२.४।।
इन चार गाथाओं में क्रोध आदि चारों कषायों के उदाहरण सहित प्रत्येक के चार भेदों का नाम-निर्देश किया गया है। उनमें से 'णगराइसरिसो' यह शब्द पर्वत शिलाभेद सदृश क्रोध का
१. धवल पु. १ पृ. ३५० गा. १७४.१७७, प्रा.पं.स.पू. २४ गा. १११-११४; वर्मप्रकृति ग्रन्थ (ज्ञानपीठ) पृ. १२१ ब १२२ गा. ५७-६० । २. जयश्रवल पु. १२ पृ. १५२ व १५५ ।