Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३६० / गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा २८४-२८७
द्योतक है। सर्वकाल में अविनाशरूप साधर्म्य को देखकर यह उदाहरण कहा गया है। जैसे पर्वत शिलाभेद किसी भी दूसरे कारण से उत्पन्न होकर पुनः कभी दूसरे उपाय द्वारा सन्धान की प्राप्त नहीं होता, तदवस्थ ही बना रहता है। इसी प्रकार जो क्रोध परिणाम किसी भी जीव के, किसी भी पुरुष विशेष में उत्पन्न होकर किसी भी दूसरे उपाय से उपशम को प्राप्त नहीं होता है, प्रतिकार रहित होकर उस भव में भी उसी प्रकार बना रहता है और जन्मान्तर में भी उससे उत्पन्न हुआ संस्कार बना रहता है । इस प्रकार का तीव्रतर क्रोध परिणाम शिलारेखा सदृश कहा जाता है ।
इसी प्रकार पृथिवी रेखा सदृश क्रोध है, किन्तु यह क्रोध पूर्व के प्रोध से मन्द अनुभागवाला है, क्योंकि चिरकाल तक अवस्थित होने पर भी इसका पुनः दूसरे उपाय से सन्धान हो जाता है। यथा ग्रीष्मकाल में पृथिवी का भेद हुमा अर्थात् पृथिवी के रस का क्षय होने से वह भेदरूप से परिणत हो गई। पुन: बर्षाकाल में जल के प्रवाह से वह दरार भर कर उसी समय संघान को प्राप्त हो गई। इसी प्रकार जो क्रोध परिणाम चिरकाल तक अबस्थित रहकर भी पुनः दूसरे कारण से तथा गुरु के उपदेश आदि से उपशम भाव को प्राप्त होता है, वह इस प्रकार का तीव्र परिणामभेद पृथिवीरेखा सदृश है। यहाँ दोनों स्थलों पर 'राइ' शब्द अवयव के विच्छिन्न होने रूप भेदपर्याय का वाचक है।
धुलि राजि सदृश' ऐसा कहने पर नदी के पुलिन ग्रादि में बालुका राशि के मध्य उत्पन्न हुई रेखा के समान क्रोध ऐसा ग्रहण करना चाहिए। बह अल्पतर काल तक रहता है, इसे देखकर कहा है। यथा नदी के पुलिन प्रादि में बालुका राशि के मध्य पुरुष के प्रयोग से या अन्य किसी कारण से उत्पन्न हुई रेखा जैसे हवा के अभिघात प्रादि दूसरे कारण द्वारा शीघ्र ही पुन: समान हो जाती है अर्थात् रेस्त्रा मिट जाती है। इसी प्रकार क्रोध परिणाम भी मन्द रूप से उत्पन्न होकर गुरु के उपदेशरूपी पवन से प्रेरित होता हुआ अति शीघ्र उपशम को प्राप्त हो जाता है ।
इसी प्रकार उदकराजि के सदृश भी क्रोध जान लेना चाहिए। किन्तु इससे भी मन्दतर अनुभाग वाला और स्तोकतर काल तक रहने वाला होता है। क्योंकि पानी के भीतर उत्पन्न हुई रेखा का बिना दूसरे उपाय के उस समय ही विनाश देखा जाता है। यहाँ उभयत्र अन्त के दो क्रोधों में 'राइ' शब्द रेखा का पर्यायवाची है।'
इसी प्रकार मान के भी चारों स्थानों को जानना चाहिए। इतनी विशेषता है 'सेल' से शिला समझना चाहिए। अतिस्तब्ध भाव की अपेक्षा यह उदाहरण कहा गया है। इसी प्रकार अस्थि, दारु और लता के समान मान व.षाय का अर्थ कर लेना चाहिए।'
__ माया सम्बन्धी चार स्थानों के उदाहरण के निर्देश द्वारा कथन किया गया है। बाँस की टेढ़ीमेढ़ी जड़ की गाँठ के सदृश पहली माया होती है। इसके टेपन के निष्प्रतिकारपने का आश्रय कर यह उदाहरण दिया गया है। जैसे बांस की जड़ की गाँठ नष्ट होकर तथा शीर्ण होकर भी सरल नहीं की जा सकती, इसी प्रकार अतितीव्र वक्र भाव से परिणत माया परिणाम भी निरूपक्रम होता है। माया की दूसरी अवस्था मेढ़े के सींग के सदृश है। यह पूर्वमाया से मन्द अनुभागवाली है, क्योंकि अतिवलित वक्रतारूप से परिणत हुए भी मेले के सींग को अग्निताप आदि दूसरे उपायों द्वारा सरल
१. जयघवन पु. १२ पृ. १५३-१५४ । २. जमधवल पृ. १२ पृ. १५४ ।