Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २५३
कायमार्गणा/३५७
सिंचित करना सूत नाम का लोभ है। 'स्व' का जो भाव वह स्वता कहलाता है। अर्थात् ममकार जिसमें है वह स्वत नाम का लोभ है।' प्रिय के समान वह प्रेय है। प्रेय नामक दोष प्रेय-वोष है।
शङ्खा-इसके प्रेय रूप होने पर दोषपना कैसे बन सकता है, क्योंकि दोनों के एक होने का निषेध है ?
समाधान-नहीं, आलादन मात्र हेतुत्व की अपेक्षा परिग्रह की अभिलाषा के प्रेयरूप होने पर भी संसार के बढ़ाने का कारण होने से दोपरा बन जाता है:
— इष्ट वस्तु में अनुराग सहित मन का प्रणिधान होना स्नेह है। इसी प्रकार अनुराग का भी व्याख्यान करना चाहिए। अविद्यमान अर्थ की आकांक्षा करना प्राशा नामक लोभ है। अथवा जो पाश्यति अर्थात प्रात्मा को कृश करता है वह प्राधा नाम का लोभ है। बाह्य और पाभ्यन्तर परिग्रह की अभिलाषा का नाम इच्छा है। परिग्रह संम्वन्धी अतितीव्र अभिष्वंग का नाम मुच्र्छा है। उपात्त और अनुपात परिग्रहों में अत्यधिक तृष्णा का नाम गद्धि है। प्राशा के साथ जो रहता है वह मास है और शास का भाव शासता है। अथवा जो शाश्वत हो वह शाश्वत है। यह भी लोभ का एक नाम है। परिग्रह के ग्रहण करने के पहले और बाद में सदा-सदा बने रहने के कारण लोभ शाश्वत कहलाता है। प्रष्टरूप से अर्थन अर्थात चाहना प्रार्थना है, अर्थात प्रष्टरूप से धन की चाह करना प्रार्थना है। लालसा और गुद्धि ये एकार्थवाची शब्द हैं। विरमणं विरतिः' जिसमें विरति नहीं उसका नाम अविरति है। असंयम का हेतु होने से प्रविरति लाभपरिणाम स्वरूप है, क्योंकि हिंसा सम्बन्धी अविरमरण अर्थात् अविरति के सभी भेद लोभ कषाय निमित्तक होते हैं। विषय सम्बन्धी पिपासा का नाम तृष्णा है । विद्या शब्द से लोभ लिया गया है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति वेदन के प्राधीन है, इसलिए लोभ भी विद्यारूप से उपचरित किया गया है। लोभ लोभ से बढ़ता है। इस प्रकार विद्या के समान होने से लोभ का नाम विद्या है। जिस प्रकार विद्या की प्राराधना कष्टसाय है उसी प्रकार लोभ का पालम्बनभूत भोगोपभोग काटसाध्य होने से प्रकृत में लोभ को विद्या कहा है। असन्तोष रूप साधर्म्य का आश्रय कर जिह्वा लोभ का पर्यायवाची नाम है।
क्रोध दोष है, क्योंकि क्रोध के करने से शरीर में सन्ताप होता है, पारीर कांपने लगता है, कान्ति बिगड़ जाती है, आँखों के सामने अंधियारी छा जाती है, कान बहरे हो जाते हैं, मुख से शब्द नहीं निकलता, स्मृति लुप्त हो जाती है, आदि। गुस्से में आकर मनुष्य अपने पिता और माता आदि प्राणियों को मार डालता है। गुस्सा सकल अनर्थों का कारण है।
___ मान दोष है, क्योंकि वह क्रोध के अनन्तर उत्पन्न होता है और क्रोध के विषय में कहे गये समस्त दोषों का कारण है। माया पेज्ज (राग) है, क्योंकि उसका पालम्बन प्रिय वस्तु है। अपने लिए प्रिय वस्तु की प्राप्ति आदि के लिए ही माया की जाती है। वह अपनी निष्पत्ति के अनन्तरकाल में मन में सन्तोष उत्पन्न करती है अर्थात् मायाचार के सफल हो जाने पर मनुष्य को प्रसन्नता होती है। लोभ पेज्ज है, क्योंकि प्रसन्नता का कारण है।
१. जपन्य बल पु. १२ पृ. १८६-१६० । २. ज.ध. पु. १२ पृ.१६०-१६२ । "कामो रागनिदाने पर सुता प्रेयदोपनामानः । स्नेहानुराग मामा, मूजननागृद्धिसंज्ञाश्च ।।४॥ साशता प्रार्थना तृष्णा. नालसा विरतिस्तथा । विद्या जिन्छा च लोभस्य पर्यायाः विशतिः स्मृताः ॥५॥" (जयधबल पृ. १६२)। ३. जयघवल पु. १ पृ. ३६५.३६६ ।