Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २८३
पढमाविया कसाया सम्मतं देससयलचारितं । जहलाएं घावंति य गुणणामा होंति सेसावि ।। ४५ ।।
मार्ग/ ३५३
- प्रथम आदि अर्थात् अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन ये चारों कषाय, क्रम से सम्यक्त्व को, देशचारित्र को सकलचारित्र को और यथास्यात चारित्र को घातती हैं। इसलिए इन कषायों के नाम भी घातने गुण के अनुसार हैं ( सार्थक हैं ) ।
शङ्का - प्रनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन की घातक कैसे हो सकती है ? वह तो चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृति है अतः चारित्रगुरण की घातक हो सकती है। सम्यग्दर्शन की घातक तो मिथ्यात्वप्रकृति है ।
समाधान- विपरीत ग्रभिनिवेश मिध्यात्व है और वह विपरीताभिनिवेश मिथ्यात्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी कषाय प्रकृति इन दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है । सासादन गुणस्थान वाले के का उदय तो पाया ही जाता है। इसलिए वहाँ पर भी दोनों अज्ञान ( मिथ्याज्ञान )
सम्भव है । '
शङ्का - सासादन किसे कहते हैं ?
समाधान - सम्यक्त्व की विराधना प्रसादन है। जो इस प्रासादना से युक्त है, उसे सासादन कहते हैं । अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से जिसका सम्यग्दर्शन नष्ट हो गया है, किन्तु जो मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुए मिथ्यात्वरूप परिणामों को नहीं प्राप्त हुआ है फिर भी मिध्यात्व कर्म के अभिमुख है, उसे सासादन कहते हैं ।
शङ्का - सासादन न सम्यक्त्व रूप है, न मिथ्यात्व रूप है और न मिश्ररूप है इसलिए सासादन गुरणस्थान सम्भव नहीं है ?
समाधान ऐसा नहीं हैं, क्योंकि सासादन गुणस्थान में विपरीत अभिनिवेश अर्थात् विपरीत अभिप्राय रहता है, इसलिए वह असद्द्दष्टि माना गया है।
शङ्का - यदि ऐसा है तो इसे मिध्यादृष्टि कहना चाहिए। इसे सासादन संज्ञा देना उचित
नहीं है ।
समाधान- नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन और चारित्र का प्रतिबन्ध करने वाली अनन्तानुबन्धी काय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीत अभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है, इसलिए द्वितीयगुणस्थानवर्ती मिथ्याहृष्टि है। किन्तु मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश नहीं पाया जाता, इसलिए उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं। केवल सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं ।
शङ्का - इस कथन के अनुसार जब वह सासादन गुणस्थानवर्ती प्रसष्टि ही है तो फिर उसे मिथ्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दो गई ?
१. "मिध्यात्वं नाम विपरीताभिनिवेशः। स च मिथ्यात्वादनन्तानुबन्धिनश्चोत्पद्यते ।" [घवल पु. १ पृ. ३६१] । २. घबल पु. १ पृ. १६३-१६४ ।