Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३५२/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २८३
समाधान- जो कसे, उन्हें कषाय कहते हैं । कषाय शब्द की इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर करने वाले किसी भी पदार्थ को कषाय माना जायगा। अतः कषायों का स्वरूप समझने में संशय उत्पन्न हो सकता है, इमलिए 'जो कसे वह कषाय है' इस प्रकार की व्युत्पत्ति नहीं की गई ।'
कषाय का निरुक्तिसिद्ध लक्षण (कष् धातु की अपेक्षा) सम्मत्त-देस-सयल-चरित-जहक्खादचरणपरिणामे । घादंति या कषाया चउसोल असंखलोगमिदा ॥२८३।।
गाथार्थ-सम्यग्दर्शन, देशनारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्र परिणामों को जो घातती है, वह कषाय चार प्रकार की, सोलह प्रकार की अथवा असंन्यात लोकप्रमाण भेद वाली है ॥२८३।।
विशेषार्थ-कषाय मोहनीयकर्म रूप है। मोहनीयकर्म आत्मा के श्रद्धागुण व चारित्रगुण को मोहित करता है अर्थात् विपरीत करता है। आत्मा के उक्त गुणों को घातने की अपेक्षा वह चार प्रकार की है। काम के सम्मारिकार हो पाते हातानुबन्धी कधाय है। किंचित् त्याग रूप एकदेशचारित्र को जो घाते वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। जो सकलचारित्र (महायतरूप चारित्र) का घात करे वह प्रत्याख्यानावरण कषाय है। जो यथाख्यात चारित्र का घास करे वह संज्वलन कषाय है। चार गुणों को घातने की अपेक्षा कषाय के उपयुक्त चार भेद हो जाते हैं।
पदमो सण घाई विवियो सह घाई असपिरासि । तइनो संजमघाई चउत्थो जहखाय घाईया ॥११॥
-प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन का घात करती है, द्वितीय अप्रत्याख्यानाबरण कषाय देशाविरति (देशचारित्र, देशसंयम) की घातक है । नृतीय प्रत्याख्यानावरण वाषाय सकल संयम (महानत्त, सकलनारित्र) का बात करती है और चतुर्थ संज्वलन कषाय यथाख्यातचारित्र को घातक है।
सम्यक्त्वं हनन्त्यनस्तानुबन्धिनस्ते कषायकाः । अप्रत्याख्यानरूपाश्च देशवतविघातिनः ॥२५॥ प्रत्याख्यानस्वभावाः स्युः संयमस्य विनाशकाः । चारित्रे तु यथाख्याते कुयु : संज्वलनाः क्षतिम् ॥२६॥
-सम्यक्त्व को घात करनेवाली कषायें वे अनन्तानुवन्धी वाषाय हैं। देशवत (देशचारित्र) को घातकरने वाली अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। संयम (महाव्रतरूप सकलचारित्र) का विनाश करना प्रत्याख्यानावरण कषाय का स्वभाव है। संज्वलन कषाय यथास्यात चारित्र का घात करती है।
१. धवल पु. १ पृ. १४१ । २. प्रा.प.सं.पृ. २५। ३. उपासकाध्ययन, कल्प ४६, पृ. ३३१-३३२ ।