Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गया २५२
शङ्का दोनों वेदों की समानता कैसे है ?
समाधान - प्रसंख्यातवर्षायुष्कों अर्थात् भोगभूमियों में स्त्री-पुरुष युगलों की ही उत्पत्ति होती है । नपुंसक वेदी, सम्मूच्छिम व असंज्ञी स्वप्न में भी वहां सम्भव नहीं है, क्योंकि वे प्रत्यन्ताभाव से निराकृत हैं । यहाँ गुणाकार पल्योपम का असंख्यात भाग है। यह प्राचार्य परम्परागत उपदेश से जाना जाता है। इससे सन्य प्रतिक्रान्त राशियों के लिए जगत्तर का भागाहार पत्योपम के असं ख्यातवें भाग मात्र प्रतरांगुल प्रमाण होता है । किन्तु यहाँ संख्यात प्रतरांगुल भागाहार है ।
कषायमार्गणा/३५१
13. भोगभूमियों से प्रसंज्ञी नपुंसक वेदी गर्भज संख्यातगुणे हैं ।। १४० ॥ क्योंकि नोइन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम पंचेन्द्रियों में बहुतों के नहीं होता । ८. असंज्ञी पुरुषवेदी गर्भज संख्यातगुणे हैं ।। १४१ ॥ C. इनसे संज्ञी स्त्रीवेदी गर्भज संख्यातगुणे हैं ॥ १४२ ॥ भोगभूमियों से लेकर असंजी स्त्रीवेदी गर्भज राशि तक जगत्प्रतर का भागाहार संख्यात प्रतरांगुल है ।"
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१०. पंचेन्द्रिय योनिनी तिर्यंचों से (यानी असंज्ञी स्त्रीवेदी गर्भजों से ) बानव्यंतर देव संख्यातगुणे हैं ||४०|| गुणकार संख्यात समय है । ११. वानव्यन्तर देवों से ज्योतिषी देव संख्यातगुरणे है ।। ४२ ।। संख्यात समय गुर है। मखानु, वेदमार्गणा ( धवल ७ पृ. ५५५ से ५५८ ) के अनुसार नौ स्थान तो ऊपर के अनुसार ही हैं। पर दसवाँ तथा ग्यारहवाँ स्थान इस प्रकार है- ( १० ) श्रसंज्ञी स्त्रीवेदी गर्भजों से प्रसंज्ञी नपुंसक सम्मूर्च्छन पर्याप्त संख्यातगुणे हैं। (११) असंज्ञी नपु० सम्मूर्च्छन पर्याप्तों से प्रसंज्ञी नपु० सम्मूर्च्छन अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग है ।
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इस प्रकार गोम्मटसार जीनकाण्ड में वेदमार्गणा नाम का दसव अधिकार पूर्ण हुआ ।
११. कषायमार्गणाधिकार
कषाय का निरुक्तिसिद्ध लक्षण ( कृष् धातु की अपेक्षा )
सुहदुक्ख सुबहसस्सं कम्मवखेत्तं कसेदि जीवस्स ।
संसारदूरमेरं ते कसा श्रोत्ति णं बेंति ॥ २६२ ॥ ३
गायार्थ – सुख-दुःख श्रादि अनेक धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दूर है ऐसे कर्मक्षेत्र को जो कर्षण (फल उत्पन्न करने योग्य) करती है, वह कषाय है ।। २८२॥
विशेषार्थ - शङ्का- 'कषन्तीति कषाया:' अर्थात् जो कसे वे कषाय हैं इस प्रकार की व्युत्पत्ति क्यों नहीं की ?
१. धवल पु. ७ पृ. ५५५ से ५५८ तक, सूत्र १३४- १४२ । २. धवल पु. ७ पृ. ५६५ सूत्र ४० व ४२ । ३. प्रा.पं.सं. २३गा. १०८ व पू. ५७९ मा १०० धवल पु. १ पृ. १४२ गा. ६० ।