Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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वेदमार्गणा / ३४६
जाता है। इन देवियों से कुछ अधिक स्त्रीवेदी जीव हैं। देत्रियों में तिर्यत्र व मनुष्य सम्बन्धी स्त्रीवेदी राशि को जोड़ देने पर सर्व स्त्रीवेदी राशि प्राप्त होती है ।
गाय। २७६
देहि सादिरेया पुरिसा देवीहिं साहिया इत्थी । तेहि विहीरण सवेदो रासी संढारण परिमाणं ॥२७६॥
गाथार्थ - देवों से कुछ अधिक पुरुषवेदियों का प्रमाण है और देवियों से कुछ अधिक स्त्रीवेद वाले हैं । सवेद राशि में से पुरुषवेदी और स्त्रीवेदियों का प्रमाण घटाने पर शेष नपुंसकों का प्रमाण है || २७६ ।।
विशेषार्थ - पुरुषवेदी जीव देवों से कुछ अधिक है।
से
देवराशि के तैंतीस खण्ड करके उनमें एक खण्ड देवों में पुरुषवेदियों का प्रमाण है । उसमें तिर्यच व मनुष्य सम्बन्धी पुरुषवेद राशि को जोड़ देने पर सर्व पुरुषवेदियों का प्रमाण होता है। इसी कारण पुरुषवेदियों का प्रमाण देवों से कुछ अधिक कहा गया है। इसी प्रकार देवियों से स्त्रीवेदियों का साधिक प्रमाण कहा गया है ।
कुल सफेद रात्रि है। उस से गुरुदेव स्त्रीवेदी की असंख्यात राशि कम करने पर भी नपुंसक वेद राशि अनन्तानन्त शेष रहती है । जो अनन्तानन्त अवसर्पिणीउत्सर्पियों से पहृत नहीं होती है वह नपुंसक राशि क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तालोक प्रमाण है ।"
निगोद राशि नपुंसक वेदी ही है और निगोद राशि अनन्तानन्त है । श्रतः नपुंसक वेदी भी अनन्तानन्त कहे गये हैं । अथवा एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक जीव शुद्ध नपुंसक वेदी होते हैं।
शङ्का - चींटियों के ग्रण्ड़े देखे जाते हैं ।
समाधान -- ग्रण्डों की उत्पत्ति गर्भ में ही होती है, ऐसा कोई नियम नहीं है । "
शङ्का - एकेन्द्रिय जीवों के द्रव्यवेद नहीं पाया जाता है फिर एकेन्द्रिय जीवों के नपुंसक वेद कास्तित्व कैसे बतलाया ?
है |
समाधान — एकेन्द्रियों में द्रव्यवेद मत होश्रो, क्योंकि वेद के कथन में उसकी प्रधानता नहीं अथवा द्रव्यवेद की एकेन्द्रियों में उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए उसका अभाव नहीं सिद्ध होता । किन्तु सम्पूर्ण प्रमेयों में व्याप्त होकर रहने वाले उपलम्भप्रमाण ( केवलज्ञान ) से उसकी सिद्धि हो जाती है ।
१. "तेहितो देवप्रो बसी सगुणा हवंति त्ति धाइरिय २ व ३. "देवीहिमादिरेयं ॥ १०६ ॥ तिरिक्त मणुस्सा
७ पृ. २०१ ।। ४. "देवेहि सादियं ।। १०५ ।। " धबल पु. ७ पृ. २८२ ] । दचपमाण केवडिया ? ॥१०६॥ प्रणंता ॥१०॥"
६
५. बबल पु. ७ पृ. २८२ । [ धवल पु ७१.२८२ ] ।
सयवेदा ७. "अगतागताहि श्रसरि उस्सप्पिणीहि प्रबहिरति ॥१०६॥ खेत्ते
अणंतारणंता लोगा ।" [ धवल पु. ७ पृ.
२८२-२८३ ।। ८. "तिरिखा मुद्धा बु सगवेदा एइ विमम्महूडि जाब चउरिदिया ॥ १०६ ॥ [ प्र.पु. २. ३४५] | ६. घवल पु. १ पृ. २४६ ॥
परंपरागयुवदेसादो सव्वदे । " [ष. पु. ३.४१४] इत्थि वेदरासि पक्खिसे सव्वित्थिविंदरासी होदि ।" [ध.पु.