Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३५०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २८०-२८१ शङ्का-जो स्त्रीभाव और पुरुषभाव से सर्वथा अनभिज्ञ हैं ऐसे एकेन्द्रियों के स्त्री और पुरुषविषयक अभिलाषा कैसे बन सकती है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि जो पुरुष स्त्रीवेद से सर्वथा अज्ञात है और भूगृह के भीतर वृद्धि को प्राप्त हुआ है ऐसे युवा पुरुष के साथ उक्त कथन का व्यभिचार प्राता है।'
तीनों वेदों की प्रवृत्ति क्रमसे ही होती है युगपत् नहीं, क्योंकि वेद पर्याय है। जैसे विवक्षित कषाय केवल अन्तमुहर्त रहती है, वैसे सभी वेद केवल एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त नहीं रहते, क्योंकि जन्म से लेकर मरण तक किसी एक वेद का उदय पाया जाता है ।
अपगतवेदी जीव द्रव्यप्रमाण से अनन्त हैं।
गब्भणपुइथिसणी सम्मुच्छरणणिपुण्णगा इदरा । कुरुजा असणिणगब्भजणपुइस्थीवाणजोइसिया ॥२०॥ थोवा तिसु संखगरणा तत्तो प्रावलिप्रसंखभागगरणा ।
पल्लासखेज्जगुणा तत्तो सम्वत्थ संखगुणा ॥२८॥ गाथार्य-गर्भज संज्ञी नपुसक १, संजी गर्भज पुरुष २, गर्भज संजी स्त्रीवेदो ३, सम्मुच्छन संज्ञी पर्याप्त ४, सम्मूर्छन संज्ञी अपर्याप्त ५, भोगभूमिया ६, असंज्ञी गर्भज नपुसक वेदी ७, असंही गर्भज पुरुषवेदी ८, गर्भज प्रसंज्ञा स्त्रीवेदी ६, वानव्यन्तर देव १०, ज्योतिषी देव ११ । ये ग्यारह स्थान क्रम से हैं। पहला स्थान सबसे स्तोक है। उसके आगे के तीन स्थान श्रम से संख्यातगुणें हैं। फिर एक स्थान प्राबली के असंख्यातवें भाग गुरगा है। फिर एक स्थान पाल्य के असंख्यातवं भाग गुणा है। इससे आगे के सर्व स्थान संख्यातगुणे-संख्यातगुणे हैं ।।२८०-२८१।।
विशेषार्थ-उपर्युक्त कथन वेदमार्गणा में अल्पवहुत्त्व बतलाने के लिए किया गया है। यह कथन पंचेन्द्रिय तिर्यंच की अपेक्षा किया गया है।
१. संजी नपुसक वेदी गर्भज सबमें स्तोक हैं ॥१३४॥ २. उससे संज्ञी पुरुषवेदी गर्भज संख्यातमुरणे हैं ।।१३५।। क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवे भाग मात्र प्रतरांगुलों का जगत्प्रतर में भाग देने पर संजी नपुसकवेदी गर्भजों का प्रमाण होता है अतएव वे स्तोक हैं। दूसरे संज्ञी गर्भज जीवों में नपुसकवेदियों की प्रायः सम्भावना नहीं है। ३. उससे संज्ञी स्त्रीवेदी गर्भज संख्यातगुणे हैं ।।१३६॥ क्योंकि संज्ञी गर्भजों में पुरुषवेदियों से स्त्रीवेदी बहुत पाये जाते हैं। ४. संज्ञो नपुसकवेदी सम्मूच्छिम पर्याप्त संख्यातगुणे हैं ।।१३७।। क्योंकि संजी गर्भजों से संज्ञी सम्मूच्छिम जीव संख्यातगुरणे हैं। सम्मूच्छिम स्त्रीवेदी व पुरुषवेदी नहीं होते। ५. संझी नपुसकवेदी सम्मूच्छिम अपर्याप्त असंख्यातगुणे हैं ।।१३८।। आवली का असंख्यातवाँ भाग गुणाकार है, जो परम गुरु के उपदेश से जाना जाता है। ६. संजी स्त्रीवेदी व पुरुषवेदी गर्भज असंख्यातवर्घायुष्क दोनों ही तुल्य असंख्यात गुरणे हैं ॥१३६॥
१. धवल पु. १ पृ. ३४४ । २. घनल पु. १ पृ. ३४६ । ३. धवल पु. ७ पृ. २८३ । ४. धवल पु. ७ पृ. ५५५ "पचिदियतिरिक्ष जोगिा एसु पयदि ।"