Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २७०
योगमार्गणा/३४३
पश्चात् उत्पत्ति का अन्तर पड़ जाता है। वह अन्तरकाल जघन्य से एकसमय और उत्कृष्ट संख्यात श्रावली प्रमाण है। देबों में संख्यात वर्ष की आयु वाले व्यन्तर देत्र अधिक उत्पन्न होते हैं अतः उनकी अपेक्षा कथन किया गया है। संस्थात वर्ष में सोपत्र मकाल शन्नाकानों में (उत्पत्ति काल के बारों में) यदि सर्व देवराशि एकत्र होती है तो अपयप्ति काल सम्बन्धी उपक्रम शलाकाओं में कितने जीवों का संचय होगा । इस प्रकार त्रै राशिक गरिणत करके इच्छाराशि से प्रमाणराशि को भाजित करके जो लब्ध प्राप्त हो उसका देवराशि में भाग देने से वैक्रियिक मिश्रकाययोगो देवों का प्रमाण प्राप्त होता है, जो देवराशि के संख्यातवें भाग मात्र है।' असंख्यात वर्ष की आयु बालों में अनुपक्रम काल बड़ा होगा, अतः उनमें वैक्रियित्र मिथकाययोगियों का प्रमाण अल्प होगा इसलिए उनकी विवक्षा नहीं की गई। दैनियिक मिश्रकाययोगी देवराशि में नारक मिथकाययोगियों की संख्या मिला देने से समस्त वक्रियिक मिश्रकाययोगियों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है।
वैक्रियिक काययोगी देवों के संख्यात भाग से कम है । अपनी-अपनी राशि के संख्यातवें भाग से न्यून देवों की जो राशि है उतना बक्रियिककाययोगियों का प्रमाण है। देव और नारकियों की राशि को एकत्र करके मनोयोग, वचनयोग और काययोग के काल के जोड़ से खण्डित करके जो लब्ध श्रावे उसकी तीन प्रतिराशियां करके अपने-अपने काल से गुरिणत करने पर अपनी-अपनी राशियों का प्रमाण होता है। चूकि मनोयोगी जीवराशि और वचनयोगी जीवराशि देवों के संख्यातवें भाग है, इसलिये वैक्रियिक काययोगी राशि का प्रमाण कुल राशि से संख्यातवें भाग कम होता है । ३
श्राहारककाययोगी तथा ग्राहारकमिश्वकाययोगियों का प्रमाण श्राहारकायजोगा चउवण्णं होंति एकसमयहि ।
पाहारमिस्सजोगा सत्तावीसा दु उक्कस्सं ॥२७॥ __ गाथाथ--- एक समय में आहारक काययोग वाले जीव अधिक से अधिक चौपन हैं। और माहारक मिश्र काययोगी सत्तावीस हैं ॥२३० ।।
विशेषार्थ-ग्राहारककाययोगी प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होते हैं, अन्यत्र नहीं होते। उपर्युक्त गाथा में आहारकमिशवाययोगी यद्यपि सत्तावीस कहे गये हैं, क्योंकि यह कथन प्राचार्य परम्परा से प्राये हुए उपदेश अनुसार है, किन्तु धवल पु. ३ सूत्र १२० में सत्तावीस न कहकर संख्यात कहे हैं। अर्थात् आहारक मिथकाययोग में जिनदेव ने जितनी संख्या देखी हो, उतने संख्यात जीव होते हैं, सत्तावीस नहीं ; क्योंकि सूत्र में 'संख्यात' यह निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता । तथा पाहारक मिश्र योगियों से आहारक काययोगी जीव संख्यात्तगुणे हैं, इससे भी प्रतीत होता है कि आहारक मिश्र काययोगी जीव संख्यात हैं, सत्तावीस नहीं। कदाचित् कहा जाये कि दो भी तो संख्यात हैं, परन्तु उसका यहाँ पर ग्रहण नहीं किया गया, क्योंकि अजघन्यानुत्कृष्ट संख्या का ही ग्रहण किया
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१. प्रवल पु. ३ पृ. ४०० । २. "श्वियकायजोगी दवपमारगरण केवडिया ? देवाणं संखेजदिभागणं ||६४-६५॥" [धवल पु. ७ पृ. २७६] । ३. धवल पु. ३ पृ. ३६८-३६६ । ४. "माहारकाय जोगीसु पमत्तसंजदा दवपमागरण केवडिया? चदुनण्णं ।।११६।।" [घवल पु. ३ पृ ४.१] । ५. "ग्राहारमिम्सकाय जोगीसु पमत्तसंजदादच्वपमाण केडिया ? संखेज्जा।।१२०।।" [श्रयल पु. ३ पृ. ४०२] ।।