Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३४४/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २७१.२७२
है। अथवा सर्व अपर्याप्त काल से जघन्य पर्याप्त काल भी संख्यात गुणा है, इससे भी यह प्रतीत होता है कि आहारक मिश्र काययोगी सत्तावीस नहीं लेने चाहिए।'
इस प्रकार मोम्मटसार जीवकाण्ड में योगमार्गरणा नामका नबाँ अधिकार पूर्ण हुप्रा ।
१०. वेदमार्गणाधिकार
वेदमार्गणा पुरिसिच्छिसंढवेदोषयेण पुरिसिच्छिसंढो भावे । रणामोदयेरा दव्ये पाएण समा कहिं बिसमा ॥२७१।। वेदस्सुदीररगाए परिणामस्स य हवेज्ज संमोहो ।
संमोहेण ण जाण दि जीवो हि गुरणं व दोष वा ॥२७२।। गाथार्थ-पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुसकवेद कर्म के उदय से भावपुरुषवेदी, भावस्त्रीवेदी और भावनपुंसकवेदी होता है। अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से द्रव्यपुरुषवेदी, द्रव्यस्त्रीवेदी और द्रव्यनपुसक वेदी होता है। द्रव्य और भाव ये दोनों वेद प्राय: सम (सदृश होते हैं, परन्तु कहीं पर विषम भी हो जाते हैं ।।२७१॥ वेद नोकषाय के उदय व उदीरणा से परिणामों में सम्मोह होता है। सम्मोह के कारण जीव गुरग व दोष को नहीं जानता ।।२७२।।
विशेषार्थ-वेद दो प्रकार का है द्रव्यवेद और भाववेद । अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से शरीर में योनि, लिङ्ग (मेहन) आदि की रचना होती है वह द्रव्यवेद है। वेद नोकषाय, मोहनीय कर्मोदय व उदीरणा से जीव में पुरुष व स्त्री अथवा दोनों से रमण करने के भाव उत्पन्न होते हैं और जीव मोहित होकर विवेकहीन हो जाता है तथा गुण व दोष का विवेक जाता रहता है। जैसे-मदिरापान करके जीव उन्मत्त हो जाता है, कर्त्तव्य-प्रकर्तव्य, कार्य-अकार्य इत्यादि का विचार नहीं रहता। ऐसी दशा वेदकर्म के तीवोदय में हो जाती है। इस विषय में निम्नलिखित गाथाएं उपयोगी हैं--
ग्रेवस्सुदीरणाए बालत्तं पुण रिणयकछुवे बहुसो। इत्यो-पुरिस-पउंसय वेयंति तदो हववि वेदो ॥१०१।। तिम्वेव एव सव्वे विजीवा विट्ठा हु दम्व-भायादो । ते चेव हु विवरीया संभवंति जहाकम सम्वे ॥१०२॥ उदयादु णोकसायाण भाववेदो य होइ जंतूणं । जोगी य लिंगमाई गामोदय दव्ववेदो दु ॥१०३॥ इत्थी पुरिस राउंसय वेया खलु वश्व-भावदोहोति ।। ते चेव य विवरोया हवंति सम्वे जहाकमसो ॥१०४॥
१. धवल पु. ३, ४०९ । २. प्राकृत पंचसमह (ज्ञानपीठ से प्रकाश्चित) पृ. २२ ।