Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
३४२/मो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २६६-२६६
कार्मण काययोग काल से अपर्याप्तकाल असंख्यातगुणा है । अपर्याप्त बाल से पर्याप्त काल संख्यातगुणा है। इन तीनों कालों का योग भी अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात भेद हैं।
तिथंधों और मनुष्यों के अपर्याप्त काल से पर्याप्त काल संख्यात गुणा है क्योंकि कार्मभुमिजों की मुख्यता है। उन कालों के जोड़ से तिर्यच राशि को खंडित करके जो लब्ध आबे उसे अपर्याप्त काल से गुणित करने पर अपर्याप्त राशि का प्रमाण प्राप्त होता है। अपर्याप्त काल में दो योग होते हैं । विग्रह गति में अर्थात् अनाहारक अवस्था में कार्मण काययोग और आहारक अवस्था में औदारिक मिधकाययोग। संख्यात प्रावली मात्र अन्तर्मुहर्त काल में यदि सर्व अपर्याप्त जीवराशि का संचय होता है तो तीन समयों में कितना संचय प्राप्त होगा? इस प्रकार इच्छाराशि से फलराशि को गुणित करके जो लब्ध प्रावे उसे प्रमाण से भाजित करने पर अन्तमुहूर्त से भाजित सर्व जीवराशि अर्थात इतने जीव कार्मण का सयोगी होते हैं। इसको असंख्यात्त से गुणा करने पर औदारिक मिश्रकाययोगियों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है।
सोवकमाणुवक्कमकालो संखेज्जवासठिदिवाणे । प्रावलिप्रसंखभागो संखेज्जावलिपमा कमसो ॥२६६॥ तहिं सध्ये सुद्धसला सोवक्कमकालदो दु संखगुणा । तत्तो संखगुणूरगा अपुण्यकालम्हि सुखसला ॥२६७।। तं सुद्धसलागाहिदरिणयरासिमपुण्णकाललाहिं । सुद्धसलागाहिं गुणे बेतरवेगुम्वमिस्सा हु ॥२६॥ तहिं सेसदेवणारय-मिस्सजुदे सम्वमिस्सवेगुध्वं । सुरणिरय-कायजोगा बेगुम्वियकायजोगा हु ॥२६॥
गाथार्थ-संख्यात वर्ष की स्थिति वाले वानव्यन्तर देवों में सोपक्रमकाल और अनुपक्रमकाल क्रमश: पावली के असंख्यातवें भाग ब संख्यात प्रावली प्रमाण हैं ॥२६६। उस संख्यात वर्ष की स्थिति में सर्वशुद्ध शलाका का प्रमाण सोपक्रमकाल से संख्यात गुरगा है। अपर्याप्त काल सम्बन्धी शुद्ध शलाका का प्रमाण सर्वशुद्धशलाकाओं से संख्यातगुणा हीन है ॥२६७॥ व्यन्तर देवों के प्रमाण में शुद्ध शलाका वा भाग देने से जो प्राप्त हो उसको अपर्याप्त काल सम्वन्धी शुद्ध शलाका से गुणा करने पर वैक्रियिक मिश्र काययोगी व्यन्त र देवराशि उपलब्ध होती है ।।२६८॥ वैक्रियिक मिश्रकाययोगी व्यन्तर देवराशि में शेष देव व नारकी वैक्रियिक मित्रयोगियों का प्रमाण मिला देने पर सर्व वैक्रियिक मिश्र काययोगियों की संख्या प्राप्त हो जाती है। पर्याप्त देव व नारकी काययोगियों का जो प्रमाण है उतने वैक्रियिक काययोगी जीव हैं ।।२६६।।
विशेषार्थ-उत्पत्ति का नाम उपक्रमण है। जिस काल में निरन्तर उत्पत्ति होती है वह सोपक्रमकाल है। यह सोपक्रमवाल उत्कृष्ट रूप से पावली के प्रसंग्यातवें भाग प्रमाण है। उसके
१. धवल पु. ३ पृ. ३६६ । २. धवल पृ. ३ पृ. ४०३ ।