Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २६४-२:५
योगमार्गगगा/३४१
देवराशि प्रमाण है, खण्डित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसकी तीन प्रतिराशियां करके पुनः उन्हें अपने-अपने काल से गुणित कर देने पर मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगियों की राशियाँ प्राप्त होती हैं। पुनः चारों मनोयोगों के कालों के जोड़ से मनोयोगी जीवराशि को खंडित करके जो लब्ध आवे उसकी चार प्रतिराशियों करके अपने-अपने काल से गुणित करने पर सत्यमनोयोग प्रादि चारों मनोयोगियों की पृथक्-पृथक् संख्या प्राप्त हो जाती है।'
इसी प्रकार चारों वचनयोगों के कालों के जोड़ से बचनयोगी जीवराशि को जो कि ऊपर प्राप्त हुई है उसे खंडित करके जो लब्ध प्राप्त हो उसकी चार प्रति राशियाँ करके अपने-अपने योगकाल से गुणित करने पर सत्यवचनयोगी प्राधि जोक का नाम प्राप्त होता है। इतनो विशेषता है कि अनुभय बचनयोगी जीवराशि में द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय वचन योगी जीवराशि मिलाने से अनुभय वचनयोगियों की जीवसंख्या प्राप्त हो जाती है।'
कम्मोरालियमिस्सयोरालद्धासु संचिदणंता । कम्मोरालियमिस्सय पोरालियजोगिणो जीया ॥२६४।। समयत्तयसंखावलिसंखगुणावलिसमासहिदरासी।
सगगुरगगरिगवे थोवो असंखसखाहदो कमसो ॥२६॥ गाथार्थ कार्मणकाययोग काल, प्रौदारिकमिश्नकाययोग काल और औदारिककाययोग काल में एकत्र होने वाले कार्मणकाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी तथा औदारिककाययोगी जीव अनन्तामन्त हैं ॥२६४।। कार्मण काययोग का काल तीन समय, औदारिकमिश्रकाययोग का काल संख्यात प्रावली और उससे भी संख्यात गुणित प्रावलियां औदारिककाययोग का काल है। इन तीनों कालों के जोड़से एक योगवाली जीवराशि में भाग देकर अपने-अपने कालसे गुणा करने पर अपनी-अपनी राशि का प्रमाण प्राप्त होता है। कार्मणकाययोगी जीवराशि सबसे कम है, उससे असंध्यात गुणी औदारिक-मिथ-कापयोगी जीवराशि है और उससे संख्यात गुणी औदारिक काययोगी जीवराशि है ।।२६५।।
विशेषार्थ यहाँ पर साधारण वनस्पति अर्थात् निगोदराशि की प्रधानता है क्योंकि निगोद राशि के अतिरिक्त अन्य सब गतियों के जीव असंख्यात हैं। उस निगोदराशि में भी सूक्ष्म जीव मुख्य हैं। क्योंकि बादर निगोद से सूक्ष्म निगोद जीव असंख्यात गुरणे हैं। उन सूक्ष्म निगोद जीवों में भी अपर्याप्तकों से पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं। सूक्ष्म पर्याप्तक निगोद जीवों की आयु अन्तर्मुहूर्त मात्र है। किन्तु यह आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होते हुए भी अपर्याप्त काल से संख्यात गुणी है। कार्मग काययोग का उत्कृष्ट काल तीन समय है, क्योंकि अनाहारक अवस्था में ही कार्मण काययोग होता है और अनाहारक अवस्था का उत्कृष्ट काल तीन समय है।६ अपर्याप्त काल संख्यात आवली प्रमाण है। और एक मावली में जघन्य युक्तासंख्याप्त समय होते हैं 1% अतः
१. धवन पू. ३ पृ. ३१४। २. धवल पु. ३ पृ. ३८६-३६०। ३. धवल पु. ३ पृ. ३७० । ४. घवल पु. ३ पृ. ३७२-३७३ । ५. धवल पु. ४ पृ. ३६२ । ६. "एक द्वी श्रीन वाऽनाहारकः ।।३०।। { तत्त्वार्थ स्त्र अध्याय २]। ७. त्रिलोकमार गाथा ३७ ।