Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २६१
योगमार्गणा/३६१
पंचेन्द्रियतिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिनी जीवों में चार गरीर बाले जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं जो जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ।' अथवा पल्योपम के असंख्यात भाग प्रमाण घनाङ्गलों से ज.श्रे. को गुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतने वहाँ चार शरीर वाले अर्थात् वित्रिया करने वालों का प्रमाण है।
बादर अग्निकायिक पर्याय जोवराशि धनावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उसका भी असंख्यातवाँभाग विक्रिया शक्ति से युक्त है। पल्य के असंख्यातवें भाग बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव वक्रियिक शक्ति युक्त हैं । विक्रिया शक्ति से युक्त बादर वायुकायिक और बादर अग्निकायिक दोनों मिलकर भी पल्य के असंख्यातवेंभाग प्रमाण हैं । विक्रिया शक्ति युक्त मनुष्य व तिर्यंच पल्य के असं. ख्यात भाग से गुष्टि जनांगल मे जशे को मुगा करने पर जो आवे तत्प्रमाण है । भोगभूमिब मनुष्य व तिर्यंच और कर्मभूमिज मनुष्यों में चक्रवर्ती मूल शरीर से पृथक् उत्तर शरीररूप विक्रिया भी करते हैं।
देवेहि सादिरेया तिजोगिणो तेहि हीण तसपुण्णा ।
बियजोगिणो तदूरगा संसारी एक्कजोगा हु॥२६॥ गाथार्थ-तीन योग वाले जीव देवों से कुछ अधिक होते हैं। तीन योगवाले जीवों को प्रस परित राशि में से घटाने पर दो योग वाले जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है। संसारी जीवों में से तीन योग वाले और दो योग बाले जीवों को कम करने पर एक योग वाली जीवराशि प्राप्त होती है ।।२६१।।
विशेषार्थ-ज्योतिषी देवों से साधिक समस्त देवों का प्रमाण है, क्योंकि वानव्यन्तर आदि शेष सम्पूर्ण देव ज्योतिषी देवों के संख्यातवें भाग प्रमाण है। इस देवराशि में नारको, संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नियंच व पर्याप्त मनुष्यों का प्रमाण मिलाने से तीन योग वाले जीवों का प्रमाण प्राजाता है । सुच्यंगुल का प्रथम वर्गमूल गुरिगत द्वितीय वर्गमुल प्रमाण जगश्रेणियाँ नारकियों का प्रमाण है। बादाल के घनप्रमाण मनुष्य राशि है।६ संख्यात गुणित २५६ अंगूल के वर्ग से भाजित जगत्प्रतरप्रमाण संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यच हैं। इन तीन राशियों को देवराशि में मिलाने से साधिक देवराशि होती है।
शङ्का-इन तीन राशियों के मिलाने से देवराशि दुगुणी-तिगुणी आदि क्यों नहीं होती ?
समाधान नहीं, क्योंकि शेष तीन गति संबन्धी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों की संख्या देवगति के संख्यातवें भाग प्रमाण है ।
१. धवल पु. १४ पृ. २४६ । २. घडल पु. १४ पृ. ३०३ । ३. श्रीमदभपचन्द्र मूरिकृत टीका । ४. "वारपर्वतरादि सेस सब्वेदेवा जोइसियदेवारा संखेजदि भागमेत्ता हवंति ।" [धवल पु. ३ पृ. २७५] । ५. "तासि संकीत विक्वंभसूची अंगुलबग्गमूलं विदियवग्गमूलगुरिणदेण ।। १७॥" [धवल पु. ३ पृ. १३१] । ६. "मणुमपज्जत्ता धायालयग्गस्स घरगमेता ।"[चवल पु. ३ पृ. २५५] । ७. "सम्वे देव सणिणणो चेय । तेसि संखेदि भागमेचा तिगदि सणिणो होति ।" [धवल पु. ३ पृ. ४८२] ।