Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
३३८ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २५६-२६०
इन गाथाओं में आहारक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र के स्वामी का कथन नहीं है, किन्तु धवल ५. १६५. ४१४-४९५६ तक आहारक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र के स्वामी का कथन है ।
गाथा २५० २५१ की टीका में इन पाँच शरीरों के उत्कृष्ट धवल पु. १४ व धवल पु. १० के आधार पर विस्तारपूर्वक हो चुका है। पर कथन नहीं किया गया । गाथा २५० - २५१ के विशेषार्थं से देखना चाहिए।
ग्यारह गाथाओं द्वारा श्री माधवचन्द्र
प्रदेशाय के स्वामी का कथन पुनरुक्त दोष के कारण यहाँ
करते हैं
NA
विद्यदेव योगमार्गणा में जीवों की संख्या का कथन
योगमाया में जीवों की संख्या
बादरपुण्णा तेऊ समरासीए प्रसंखभागमिदा । विषिकरियस तिजुत्ता पल्ला संखेज्जया पल्ला संखेज्जाय - बिदंगुलगुरिगद से ढिमेत्ता वेगुब्वियपंचषखा भोगभूमा पुह
बाऊ ||२५||
हु ।
विगुध्वंति ।। २६०।।
गाथार्थ - बादर पर्याप्त अग्निकायिक जीवराणि का असंख्यातवाँ भाग विक्रिया शक्ति से युक्त है। बादर पर्याप्त वायुकायिक जीवों में पत्य के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण जीव विक्रियाशक्ति से युक्त हैं ||२५|| पल्य के असंख्यातवें भाग से गुणित घनांगुल से जगच्छेणी को गुणा करने पर पंचेन्द्रिय वैऋियिक शक्ति वाले जीवों का प्रमाण जाता है । भोगभूमिया पृथक विक्रिया भी करते
1125011
विशेषार्थ ग्रोध की अपेक्षा चार शरीर वाले जीव असंख्यात हैं अर्थात् जगत्प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण या श्रसंख्यात ज.श्रे. प्रमाण है । उन जगच्छ गियों की विष्कम्भ सूची पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र घनांगुलप्रमारण है ।" इस संख्या में तिर्यचों की प्रधानता है, क्योंकि मनुष्य में विक्रिया शक्तियुक्त जीव संख्यात होते हुए भी बहुत अल्प हैं। इसीलिये तिर्यचो में विक्रिया करने वाली राशि पत्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र घनांगुलों से गुरिणत ज.श्रे. प्रमाण है। पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और अपर्याप्त जीवों का भङ्ग पंचेन्द्रिय तिर्यचों के समान कहा गया है, इससे भी ज्ञात होता है कि पंचेन्द्रियतिर्यचों की मुख्यता है । क्योंकि अग्निकायिक व वायुकायिक इन दोनों में भी मिलकर विक्रिया करने वाली राशि पत्योपम के प्रसंख्यातवें भाग है ।" किन्तु पंचेन्द्रियतिर्यंच,
3
१. "दुसरोग दव्वपमाणे केवडिया ? असंखेज्जर, पदरस्त असते. मागो, श्रसंखेज्जाओ ढीम्रो, तासि सेटी विक्मसूत्री पलिदो असले. मागमेतघणं गुलागि ।" [ धवल पु. १४ पृ. २४९ ] । २. "तिरिवसे विन्चमारारात्री पत्रिदोदमस्त असंखेज्जदिमागमेत घांगुलेहि गुणिसेवितो ।" [ धवल गु. ३. ६६-६७ ।। ३, "पंचदिग्र-पंचिदियमज्जत्ता तस-तसपज्जत्ता पाँचदिय तिरिक्स मंगो ।" [ घबल पु. १४ पृ. २५१ ।। ४. एड दिय बादरइ दिवपज्जत्ता चदुसरीरा दव्यमाखेण वडिया ? श्रसंखेज्जा, पलिदो असे भावो ।" [वल पु १४ पृ २१० }।