Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पापा २७३
वेदमार्गणा/३४५
वेदकर्म की उदीरणा होने पर जीव नानाप्रकार के बाल भाव (उन्मत्तभाव) करता है। और स्त्रीभाव, पुरुषमाव और नपुसकभाव का वेदन करता है। वेदकर्म के उदय से होने वाला भाव ही भाववेद है। द्रव्य और भाव की अपेक्षा सर्व ही जीव तीनों वेद वाले दिखलाई देते हैं। वे सर्व ही विपरीत वेदवाले (विषम वेद वाले) यथाक्रम संभव है। नोकषाय के उदय से जीव के भाववेद होता है तथा योनि, लिंग आदि द्रव्यवेद, नामकर्म के उदय से होता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद ये तीनों ही देद निश्चय से द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार के होते हैं और वे सर्व यथाक्रम विपरीत विषम भी परिणत हो जाते हैं ।
___ आत्मप्रवृत्ति (आत्मा की चैतन्य रूप पर्याय) में मथुनरूप चित्तविक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते हैं।' नामकर्म के उदय से शरीर में मूछ, दाढ़ी, लिंग आदि का होना द्रव्यपुरुष है । नामकर्मादय से शरीर में रोमरहित मुख, स्तन, योनि प्रादि का होना द्रव्यस्त्री है। नामकर्म के उदय से मुछ, दाढ़ी, लिग आदि तथा स्तन, योनि ग्रादि दोनों प्रकार के चिह्नों से रहित शरीर का होना द्रव्यनपु सक होता है। प्रचरता से द्रव्य और भाव वेद सदृश ही होते हैं, क्वचित् कर्मभूमिज मनुष्य व तिर्यंचा में विसरश (विषम) भी हो जाते हैं। जैसे द्रव्य से पुरुषवेद किन्तु भाव से स्त्री या नपुसकवेद। द्रव्य से स्त्रीवेद भाव से पुरुष या नपुसकवेद । द्रव्य से नपुसकवेद भाव से स्त्री या पुरुषवेद। इस प्रकार से बिसदश वेदों की भी सम्भावना है। इन तीनों वेदों के स्वामित्व का कथन इस प्रकार है
एइंदिय विलिदिय णारय सम्मुच्छिमा य खलु सम्वे । वेदे णपुसगा ते रणादवा होति रिणयमादु १८७॥ देवा य भोगभूमा असंखदासाउगा मणुयतिरिया। से होंति बोसुयेवेसु पत्थि सेसि तदियवेदो ॥८॥ पंचेन्दिया दु सेसा सणि प्रसपिण्य तिरिय मणुसा य ।
ते होंति इत्थिपुरिसा णपुंसगा चावि हि ।।' —पृथिवीकायिक, जलकायित्रा, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । एकेन्द्रिय जीव; हीन्द्रिय-श्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय विकलेंद्रिय जीव; नारकी और सर्व सम्मूर्छन जीव अथवा संजी सम्मुर्छन तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मूर्छन ये सब नियम से नपुसकवेदी होते हैं अर्थात् द्रव्य व भाव से नपुंसक वेदवाले होते हैं। देव, भोगभूमिया, असंख्यात वर्ष की आयुवाले अर्थात् भोगभूमि प्रतिभाग में (भरत व ऐरावत क्षेत्र के भोगभूमिया काल में) उत्पन्न होने वाले तथा सर्वम्लेच्छ खण्डों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य व तिर्यचों के पुष व स्त्री ये दो ही वेद होते हैं, नपुसकवेद नहीं होता। इनमें बेदवैषम्य नहीं होता। शेष संक्षी व प्रसंज्ञो पंचेन्द्रिय मनुष्य-तियचों में स्त्री, पुरुष और नपुसका तीनों वेद होते हैं और इनमें वेदविषमता भी होती है।
___ यथाक्रम तीनों वेदों के लक्षण पुरुगुणभोगे सेवे करोदि लोयम्मि पुरुगुणं कम्मं ।
पुरुउत्तमो य जह्मा तह्मा सो वणिो पुरिसो ।।२७३।। १. धवल पृ. १ पृ. १४१ "अथवात्मप्रवृत्तमैथुनसम्मोहोत्पादो वेदः ।। २. श्रीमदभय चन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कृत टीका। ३. मूलाधार पर्याप्ति अधिकार १२ पृ. ३४०-३४१ । ४. मूलाचार.पाप्ति अधिकार १२ गाथा ८८ पृ. २४१ ।५. यह गाथा घबल पु. १ पृ. ३४१, तथा पु. ६ पृ. ४७ प्रौर प्रा.पं.सं. गाथा १०६ पृ. २३ पर भी है ।