Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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योगमाया / ३३५
गाथा २५४-२५५
होता है उससे अन्तर्मुहूर्त जाकर वह दुगुणाहीन हो जाता है || २७७ ||
शङ्का श्रदारिक शरीर और वैक्रियिक शरीर के साथ ही आहारक शरीर की प्ररूपणा क्यों नहीं की ?
समाधान- क्योंकि गुणहानिशलाकाओं की संख्या में भेद है ।
गुणहानि अवस्थित है जो श्रन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यात समय है । अन्तर्मुहूर्त की एक गुणहानिशलाका प्राप्त होती है तो श्राहारक शरीर के साथ रहने के प्रमाण काल के भीतर वे कितनी प्राप्त होंगी, इस प्रकार फलराशि से गुणित इच्छाराशि में प्रमाणराशि का भाग देने पर संख्यात नानागुणहानिशलाकाएँ प्राप्त होती हैं। नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर स्तोक है, क्योंकि संख्यात हैं और उनसे एक प्रदेशगुणहानि स्थानान्तर असंख्यात गुणा है । गुणाकार अन्तर्मुहूर्त है।
तंजस शरीरवाले और कार्मण शरीरवाले जीव के द्वारा तैजस शरीर और कार्मण शरीर रूप से प्रथम समय में जो प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है उससे पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर वह दुगुणा हीन होता है, पत्य के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान जाकर वह दुगुणा हीन होता है ।। २८२ ।। इस प्रकार उत्कृष्ट रूप से छ्यासठ सागर तथा कर्मस्थिति श्रन्त तक दुगुणाहीन - दुगुणाहीन होता हुआ जाता है || २८३ ।। एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर पल्य के असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रभार है और नानाप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर पल्य के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं || २८४ ।। नानाप्रदेशगुण हा निस्थानान्तर स्तोक हैं ||२६५ ॥ उनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर प्रसंख्यातगुणा है ।। २८६ ।। ३
श्रीदारिकादि शरीरों के बन्ध, उदय और सत्त्व अवस्था में द्रव्य प्रमाण एक्कं समयबद्ध बंधदि एक्कं उदेदि चरिमम्मि । गुहागरण दिवढं समयपबद्ध हवे सतं ।। २५४ ॥ । खबर य दुसरीरागं गलिदवसेसा उमेत्तठिदिबंधो । गुणहारणी विवढं संचयमुदयं च चरिमहि ।। २५५||
गाथार्थ --- प्रतिसमय एकसमय प्रबद्ध का बन्ध होता है और एक ही समयप्रबद्ध का उदय होता है। अन्त में डेढ़ गुणहानि प्रसारण समयप्रबद्ध द्रव्य का सत्व रहता है। किन्तु प्रौदारिक और वैकिक शरीर में यह विशेषता है कि इन दोनों शरीरों के बध्यमान समयप्रबद्धों की स्थिति भुक्त आयु से अवशिष्ट प्रायु की स्थिति प्रमाण होती है। श्रायु के श्रन्त समय में डेढ़ गुणहानि मात्र संचय तथा उदय होता है ।। २५४-२५५ ।।
पदे
१. "आहारसरि तेरव पहम समय श्राहारएण पदमसमयतव्भवत्येा ग्रहारसरीरनाए जं पत्रमसमए दो तो हत्तं गंगा दुगु होणं ॥ २७७॥ [ धवल पु. १४ पृ. २४८ ] २. घवल पु. १४ . २४६ ३. घ. पु. १४ पृ. ३५०-३५१ ।