Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २५३
योगमार्गणा/३३३
जो प्रदेशाग्र तेजसशरीर रूप से प्रथम समय में बाँबे जाते हैं उनमें से कुछ एक समय तक रहते हैं, कुछ दो समय तक रहते हैं. कुछ तीन समय तक रहते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे छयासठ सागर काल तक रहते हैं ।।२४७॥ अर्थात अनादि से संसार में परिभ्रमण करते हुए जीव के जहाँ कहीं भी स्थापित करके तैजसगरीर को प्रदेशरचना उपलब्ध होती है।'
जो प्रदेशाग्र कार्मरण शरीर रूप से बाँधे जाते हैं उनमें से कुछ एक समय अधिक पावली प्रमागावाल तक रहते हैं, कुछ दो समय अधिक पावलोप्रमाणकाल तक रहते हैं और कुछ तीन समय अधिक मावली प्रमाणकाल तक रहते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट रूप से कर्मस्थिति प्रमाणकाल तक रहते हैं ।।२४८।। यहां पर कर्मस्थिति ऐसा कहने पर सत्तर कोडाकोड़ी सागर का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पाठों कर्मों के समुदाय को कार्मग शरीर रूप से स्वीकार किया गया है। प्रथम समय जो प्रदेशाग्र बाँधे जाते हैं उनमें से कुछ एक समय अधिक प्रावली काल तक रहते हैं, क्योंकि बन्धावली के बाद के समय में द्रव्य का अपकर्षण करके उदय में निक्षिप्त करने पर उस विक्षित एक समय अधिक प्रावली रूप उदय समय उदीयमान कर्मप्रदेश का अवस्थान काल एक समयाधिक पावली होता है तथा ऐसे उस कर्मप्रदेश में लाये गये द्रव्य का दो समय अधिक प्रावली के अन्तिम समय में अकर्मपना देखा जाता है।'
उपसंहार-एक जीव की अपेक्षा, मिश्र काल अर्थात् अपर्याप्त काल को छोड़कर पांचों शरीरों का काल इस प्रकार है-तिर्यंच और मनुष्यों के औदारिक शरीर का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम प्रमाण है । यहाँ पर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मिश्रकाल कम किया गया है 1 मूल वैफियिक शरीर का काल जघन्य से अपर्याप्त काल सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त कम तैतीस सागर है। उत्तर वैक्रियिक शरीर का काल देवों के जघन्य व उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है।
शङ्खर-तीर्थंकरों के जन्मोत्सव तथा नन्दीश्वर द्वीप में जिनचंत्यालयों की पूजन में अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल लगता है। वहाँ देवों का उत्तर वैक्रियिक शरीर इतने काल तक कैसे रहता है ?
समाधान-पुनःपुन: विक्रिया करने से उत्तर क्रियिक शरीर की सन्तति का बिच्छेद नहीं होता।
ग्राहारक शरीर का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सन्तति की अपेक्षा तेजस व कार्मण शरीर अभव्यों के अनादि-अनन्त हैं। किसी भव्य के अनन्त काल तक भी सान्त नहीं होते। किसी भव्य के अनादि सान्त है। सन्तामनिरपेक्ष तेजस शरीर की स्थिति छयासठ सागर है और कार्मरा शरीर की स्थिति कर्मस्थिति प्रमाण अर्थात् सत्तर कोटाकोटी सागर प्रमाण है ।
पांचों शरीरों के गुणहानि मायाम का प्रमाण अंतोमुहुत्तमेतं गुणहाणी होदि आदिमतिगारणं । पल्ला संखेज्जदिमं गुणहाणी तेजकम्माणं ।।२५३।।
१. धवन्न पु. १४ पृ. ३३५। बातिक २/१/८ ।
२. धवल पु. १४ पृ. २३५ ।
३. धधल पु. १४ पृ. २३५-२३६ ।
४, राज