Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३३४/गो. सा, जीवकाण्ड
गाथा २५३
गाथार्थ -आदि के तीन शरीरों का गुणहानि-पायाम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। तेजस शरीर और कार्मण शरीर इन दोनों का गुणहानि अायाम पल्य के असंख्यातवें भाग है ।।२५३।।
विशेषार्थ-प्रथम निषेक के द्रव्य को निषेक भागाहार (दो गुणहानि) से भाग देने पर चय का प्रमाण प्राप्त होता है। प्रत्येक निर्षक एक-एक चय हीन होता जाता है। प्रथम निषेक के द्रव्य से घटते-घटते जब तक प्रथम निषेक के द्रव्य का प्राधा होता है तब तक एक गुणहानि पायाम है। दोगुणा हीन अर्थात् प्राधा हो जाने पर द्वितीय गुणहानि का प्रारम्भ हो जाता है। क्योंकि प्रत्येक गुणहानि में द्रव्य दो गुणा हीन (अर्ध) होता जाता है, अतः इसका नाम गुणहानि सार्थक है। एक गुणहानि में जितने निषेक होते हैं उनका नाम गुणहानि मायाम या गुरगहानि अध्वान होता है ।'
औदारिक शरीर, वक्रियिका शरीर और आहारक शरीर को एक गुणहानि की लम्बाई का प्रमाण अन्तमुहूर्त है और तीनों गुणाहानि स्थानान्तर समान हैं। परन्तु तेजस शरीर और कामण शरीर की गुणहानि का प्रमाण पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र है; 3 जो अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति को अपनी-अपनी नानागुणहानियों से भाग देने पर प्राप्त होता है ।
औदारिक और वैक्रियिक इन दोनों शरीरों के भव के प्रथम समय में जो प्रदेशाम निषिक्त होते हैं, उससे ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल (एक मुणहानि) जाकर वहाँ की स्थिति में निषिक्त (सिंचित) हुअा प्रदेशाग्र दुगुणाहीन होता है। पुनः द्विगुणहीन निषेक से ऊपर उतना ही अवस्थित अध्वान जाकर जो अन्य निषेक है वह उससे दुगुणा हीन है। इस प्रकार उत्कृष्ट रूप से तीन पल्य और तैतोस सागर होने तक दुगुणाहीन होता जाता है। उत्तरोत्तर विवक्षित दुगुणे हीन निषेक से ऊपर अवस्थित अन्तर्मुहूर्त अध्वान जाकर स्थित निषेक दुगुणा हीन होता है। इस क्रम से तीन पल्य और तैतीस सागर को अन्तिम स्थिति के प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए।
एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर अन्तमुहर्त प्रमाण है तथा नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है ।।२७४|| गुणहानिस्थानान्तर अन्तर्मुहर्त प्रमाण है यह बात सूत्र से ही जानी जाती है, क्योंकि वह युक्ति की विषयता का उल्लंघन कर स्थित है। परन्तु नानागुणहानिशलाकाओं का प्रमाण सूत्र और युक्ति दोनों से जाना जाता है। अन्तमुहर्त को यदि एक गुणहानि शलाका प्राप्त होती है तो तीनपल्य तथा तेंतीस सागरों की कितनी गुणहानिशलाकाएं प्राप्त होंगो, इस प्रकार फल राशि से गुणित इच्छारराशि में प्रमाण राशि का भाग देने पर नानागुणहानिस्थानान्तर पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण लब्ध प्राप्त होता है। एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर स्तोक है, क्योंकि वह अन्तमुहूर्त प्रमाण है। उससे नानागुणहानिस्थानान्तर असंख्यात गुणे हैं, गुणाकार पल्य का असंख्यातवाँ भाग है।।
अत्र आहारक शरीर के प्रदेश विन्यास विषयक प्ररूपणा की जाती है--प्रथम समय में पाहारक हुए और प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए जीव के द्वारा जो प्रथम समय में प्रदेशाग्र निक्षिप्त
१. सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदभगचन्द्र बृात टीका। २. प्रबल गु. १४ पृ. ३४० ६३८ । ३. धवल पु, १४ पृ. ३४० व ३४२ । ४. ध. पृ. १४ पृ. २४६-३४७ । ५. "एगपदेसमुणहाणिठ्ठाणंतरमंतोमुहुसं णागापदेश गुराहाशिवाणंतराणि पलिदोवमम्स असखेज्जदि भागो ॥२७४||" घिवल १४ पृ. २४७]। ६.ध.पू. १४ पृ. ३४८ ।