Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २५० २५१
योग मागंरा/३३१
होने तक विशेष अधिक के क्रम से प्रक्षेप करता है ।" इस विलोम विन्यास का कारण गुणितकर्माशिकत्व और अनुलोम विन्यास का कारण क्षपितकर्माशिकत्व है, न कि संक्लेश और विशुद्धि
बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है || १२ || ३ बहुत - बहुत बार बहुत संक्लेश रूप परिणामवाला होता है ।।११।। द्रम्य मकर्षण कने के लिए और उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध कराने के लिए बहुत - बहुत बार संबलेश रूप परिणामों को प्राप्त कराया जाता है ।"
इस प्रकार परिभ्रमण करके नादर त्रस पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ, अभिप्राय यह है कि स स्थिति से रहित कर्मस्थिति प्रमारण काल तक एकेन्द्रियों में परिभ्रमण करके फिर बादर स पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ ।
शङ्का - बादर शब्द का प्रयोग क्यों किया गया ?
समाधान - सूक्ष्मता का निषेध करने के लिए ।
शङ्का- - अस कहने से ही सूक्ष्मता का प्रतिषेध हो जाता है, क्योंकि सूक्ष्म जीव नसों में नहीं पाये जाते ?
समाधान — नहीं, क्योंकि यहां पर सूक्ष्मनामकर्म के उदय से जो सूक्ष्मता उत्पन्न होती है उसके बिना विग्रहगति में वर्तमान असों की सूक्ष्मता स्वीकार की गई है। क्योंकि उनका शरीर सनसानन्त वित्रोपचयों से उपचित प्रदारिकनोकर्म स्कन्धों से रहित हैं । "
सों में परिभ्रमण करने वाले उक्त जीव के पर्याप्त भव बहुत होते हैं और अपर्याप्त भव थोड़े होते हैं ||१५|| पर्याप्त काल दीर्घं होता है और पर्याप्त काल थोड़ा होता है ।। १६ ।। जब-जब श्रायु को बाँधता है तब-तब उसके योग्य जघन्य योग से बांधता है || १७ | | उपरिम स्थितियों के निषेक का उत्कृष्ट पद होता है और नीचे की स्थितियों के निषेक का जघन्यपद होता है ||१८|| बहुत - बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है ||१६|| बहुत - बहुत बार बहुत संक्लेश परिणाम वाला होता है || २०१
इस प्रकार परिभ्रमरण करके अन्तिम भवग्रहण में नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ ||२१|| उत्कृष्ट संतलेश से उत्कृष्ट स्थिति को बाँधने के लिए और उत्कृष्ट उत्कर्षण कराने के लिए सातवें नरक में उत्पन्न हुआ । कर्म-स्थिति को बढ़ाने का नाम उत्कर्षण है । कर्मप्रदेशों की स्थितियों के अपवर्तन का नाम अपकर्षरण है । अन्य नरक पृथिवियों में तीव्र संक्लेश और दीर्घं आयु स्थिति का प्रभाव है । "
प्रथम समय में आहारक और प्रथम समय में तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योग के द्वारा कर्ममुगलों को ग्रहण किया ||२२|| उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ ||२३|| अन्तर्मुहूर्त द्वारा अतिशीघ्र सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ ||२४|| एक भी पर्याप्ति के अपूर्ण रहने पर पर्याप्तकों में
१. घ. पु. १० पृ. ४३ ॥ ५. घ. पू. १० पृ. ४७-४८ ।
२. ष. पु. १० पृ. ४४ । ६. घ. पु. १० पृ. ५०-५१
३. ध. पु. १० पृ. ४५ । ४. घ. पु. १० पु. ४६ । ७. ध. पु. १० पृ. ५२-५३ ।