Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
३३० / गो. सा. जीव काण्ड
गाथा २५० - २५१
समाधान — नहीं, क्योंकि त्रस स्थिति को पूर्ण करके जो जीव एकेन्द्रिय में उत्पन्न होता है, उसका बसों में संचित हुए द्रव्य को बिना गाले निकलना नहीं होता ।"
वहाँ (बादर पृथिवीकायिकों ) में परिभ्रमण करने के बहुत और पर्याप्तभव थोड़े होते हैं ॥८॥ उत्पत्ति के वारों का नाम भव है ।
शङ्का - पर्याप्तों में ही बहुत बार क्यों उत्पन्न कराया ?
समाधान — अपर्याप्तकों के योगों से पर्याप्तकों के योग असंख्यातगुणे पाए जाते हैं । शङ्का -- योगों की बहुलता क्यों अभीष्ट है ।
समाधान - योग से प्रदेशों की अधिकता सिद्ध होती है।
पर्याप्तकाल दीर्घ और अपर्याप्तकाल थोड़े होते हैं ॥ ६ ॥ अर्थात् पर्याप्तकों में उत्पन्न होता हुआ दीर्घ आयु वालों में ही उत्पन्न होता है और अपर्याप्तों में उत्पन्न होता हुआ अल्प प्रयुवालों में ही उत्पन्न होता है । * दीर्घ श्रायुवाले पर्याप्तों में उत्पन्न होकर भी सबसे अल्प काल द्वारा पर्याप्तियों को पूर्ण करता है । *
जब-जब श्रायु को बाँधता है तब-तब उसके योग्य जघन्य योग से बाँधता है। कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशसंचय कराने के लिए जघन्य योग से ही आयु का बन्ध कराया जाता है अन्यथा उत्कृष्ट संचय नहीं हो सकता । उत्कृष्टयोग के काल में आयु का बंध होने पर, जघन्ययोग से आयु को afने वाले के कर्मो का जो क्षय होता है, उससे असंख्यातगुणे द्रव्य का क्षय देखा जाता है । ७
उपरिम स्थितियों के निषेक का उत्कृष्टपद होता है और श्रधस्तन स्थितियों के निषेकों का जन्यपद होता है || ११ | एकेन्द्रियों में यद्यपि उत्कृष्ट स्थिति-बन्ध एक सागर है । तथापि एक सागर काल बीतने पर समयप्रबद्ध के सब कर्मस्कन्ध नहीं गलते, क्योंकि उत्कर्षण द्वारा उनका स्थितिसत्त्व बढ़ा लिया जाता है ।
शङ्का - यदि ऐसा है तो अनन्तकाल तक उत्कर्षण कराकर संचय को क्यों नहीं ग्रहण किया
जाता ?
समाधान नहीं, क्योंकि कर्मस्कन्धों की उतने काल तक उत्कर्षण शक्ति का प्रभाव है । 'व्यक्त अवस्था को प्राप्त हुई कर्म स्थिति शक्ति रूप कर्म स्थिति का अनुसरण करने वाली होती है । "
गुणित कर्माशिक जीव विशेष अधिक प्रक्षिप्त
अथवा बध्यमान और उत्कर्षमाण प्रदेशान को निक्षिप्त करता हुआ अंतरंग कारणवश प्रथम स्थिति में थोड़े प्रक्षिप्त करता है द्वितीय स्थिति में करता है, तृतीय स्थिति में विशेष अधिक प्रक्षिप्त करता है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति के प्राप्त
घ पु १० पृ. ३७ ॥
पृ. ४३ ॥
३. व. पु. १० पृ. ३६ ॥
४.
१. ध. पु. १० पु. ३४ । २. व. पु. १० पृ. ३५ । ५. व. पु. १० ३८ । ६. ष पु. १० पृ. ३८ । ७. ध. पु. १० पृ. ३६ ८. ध. पु. १ ६. "वत्तिकम्मट्ठदि अणुसारिणी सत्ति कम्मट्ठदित्ति वयणादो ।" [ष. पु. १० पृ. ४२.] ।