Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३२८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २५०-२५१ शङ्का-पूर्वकोटि की प्रायुवाले जीव के ही तैजस शरीर की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध क्यों कराया?
समाधान--क्योंकि वहाँ पर उत्कृष्ट योग के परावर्तन के बार प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं।
शङ्का-यदि ऐसा है तो पूर्वकोटि को प्रायुवालों में ही भ्रमण कराकर तंजसशरीर नोकर्म का उत्कृष्ट संचय क्यों नहीं प्राप्त होता?
समाधान नहीं, क्योंकि बहुत बार मरकर उत्पन्न होनेवाले जीव के अपर्याप्त योगों के द्वारा स्तोक द्रव्य के संचय का प्रसंग प्राप्त होता है ।
नारकियों की आयु का बन्ध होते समय कुछ कम दो पूर्वकोटि से हीन तैंतीस सागर की आयु का बन्ध होना चाहिए, अन्यथा नारकी के अन्तिम समय में छयासठ सागर की परिसमाप्ति होने में विरोध प्राता है।
__ जो पूर्वकोटि की आयुबाला उपर्युक्त विवक्षित जीव सातवीं पृथिवी के नारकियों के प्रायुकर्म का बन्ध करता है वह क्रम से मरा और नोचे सातवीं पृथिवी में उत्पन्न हुा ।४६१॥
कदलीघात के बिना जीवन धारण कर मरा । शङ्का-सातवीं पृथिबी में ही क्यों उत्पन्न कराया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वहाँ पर संक्लेश के कारण बहुत द्रव्य का उत्कर्षण उपलब्ध होता है । तथा अन्यत्र इस प्रकार का संक्लेश नहीं पाया जाता।
शंका–पायु के प्रमाण का कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान-उस की प्रायु कुछ कम होती है, इसलिए आयु के प्रमाण का कथन नहीं झिया। वहां से निकलकर फिर भी पूर्वकोटि की पाबुवालों में उत्पन्न हुअा 11४६२॥
शङ्का-पुनः पूर्वकोटि की प्रायुबालों में क्यों उत्पन्न हुप्रा ? समाधान- क्योंकि वहाँ पर उत्कृष्ट योग के परावर्तन के धार प्रचुरता से पाये जाते हैं।
उसी क्रम से प्रायु का पालन करके मरा और पुनः नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ ।।४६३।। अर्थात् कदलीचात और अपवर्तनाघात के बिना जीवन धारण कर मरा। दूसरी पूर्वकोटि के अन्त में प्रथम तैतीस सागर समाप्त करके तैतीस सागर की प्रायुबाले नारकियों में उत्पन्न हुआ। नीनों अपर्याप्त कालों (दो नरक के और एक तिर्यच का) के प्रथम समय में आहारक हुए और प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए उसी जीव ने उत्कृष्ट योग से प्राहारक को ग्रहगा
१. घ. पृ. १४ पृ. ४१६-४१७ । २. "कमगा कालगदसमारणो अघो सत्तमाए पुढविए, उन्न्यण्गो ।।४६१।। [धन्नल पु. १४ पृ. ४१७] ३. “तदो उचठ्ठिदसमासो पुरणरावे पुरत्र कोडाउए सुत्रअण्णो" ॥४६२।। [प्र. पु. १४ पृ. ४१०] । ४. ५६३ से ४७४ तक के सूत्र पृ. ४१८-४२१ तक प. बु. १४ में हैं ।