Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २४२
योगमार्गणा/३१३
के बिना सब कर्मों को उत्पत्ति नहीं होती। इसीलिए वह सुखों और दुःखों का भी चीज है। क्योंकि उसके बिना उनका सत्त्व नहीं होता। इसके द्वारा नामकर्म के अवयवरूप कार्मण शरीर की प्ररूपणा की है। आगामी सब कर्मों का प्ररोहक, उत्पादक और त्रिकाल बिषयक समस्त सुख दुखों का बीज है, इसीलिए पाठों कर्मों का समुदाय कामरणशरीर है ।'
दूसरे शरीर को शाम करने के लिए मोहाली गति में कर्मयोग होता है। कर्मकृत प्रात्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप कर्मयोग के द्वारा कर्मों का आदान और देशान्तर-गमन दोनों होते हैं । २
योगप्रवृत्ति का प्रकार वेगुधियाहारयकिरिया र समं पमतविरदम्हि ।
जोगोवि एक्ककाले एक्केव य होदि रिणयमेरग ॥२४२॥ गाथार्थ-प्रमत्तसंयत छठे गुगास्थान में वंत्रियिक शरीर और ग्राहारक शरीर की क्रिया युगपत् नहीं होती है। सभी जीवों के एक काल में एक ही योग होता है ।।२४२।।
विशेषार्थ...इस गाथा से यह व्यक्त होता है कि वैक्रियिषा ऋद्धि और पाहारकद्धि युगपत् प्रमत्तसंयत मुनि के सम्भब हैं, किन्तु वैऋियिक शरीर की उत्पत्ति और आहारक शरीर की उत्पत्ति युगपत् सम्भव नहीं है। विशेष इस प्रकार है --
"कोई देवपर्याय से मनुष्यगति प्राप्त करके दीक्षा ग्रहण कर प्रमत्तसंयत होकर आहारक शरीर की रचना करता है। उस भूतपूर्व देव के संयम की अपेक्षा पाँच शरीर भी सम्भव हैं। जैसे घी का घड़ा। प्रमत्तसंयत के आहारक और वैक्रियिक दोनों शरीरों का उदय होते हुए भी दोनों शरीरों की एक काल में प्रवृत्ति का अभाव होने से एक के त्याग द्वारा औदारिक तेजस कार्मण आहारक ये चार पारीर युगपत् संभव हैं। अस्तित्व की अपेक्षा वैक्रियिक शरीर होने से पाँच शरीर हैं। बऋियिक शरीर लब्धि प्रत्यय भी है, इस सूत्र को यहाँ पर लगा लेना चाहिए ।'३
नस्वार्थसुत्रकार का मत इस से भिन्न प्रकार का है। वहाँ पर एक जीव में मात्र चार शरीर तक का ही अस्तित्व स्वीकार किया गया है। इस सुत्र की टीका में श्री अकलंकदेव ने पाँच शरीर का स्पष्ट रूप से निषेध किया है। क्योंकि पाहारक शरीर संयत मनुष्य के होता है उसके वैऋिषिक शरीर नहीं होता । देव और नारकियों के वैश्रियिक शरीर है, किन्तु उनके आहारक शरीर नहीं होता। युगपत् आहारक शरीर और वैक्रियिक शरीर का अस्तित्व संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि मनुष्य व तिर्यंचों के विक्रियात्मक शरीर को वैऋियिक न मानकर, औदारिक
१. प्रवल पु. १४ पृ. ३२८-३२६ । २. तत्त्वार्थवृत्ति २/२५ । ३. कश्चिद् देवो मनुष्यगतिमवाप्य दीक्षामुपादाय प्रमत्तसयतः सन याहारकशरीर नियति । तरय देवचरस्य संयतस्य अपेक्षया पञ्चापि भवन्ति घतघटवत । प्रमत्तसंयनस्य प्राहारक क्रियिकशरीराश्यानेऽपि त्योरेककाले प्रवृत्त्यभावात एकतरत्यागेन युगपदीदारितजसकार्मणाहारकारिण नत्वारि, वैऋियिक वा अस्तित्वमाश्रित्य पञ्चापि भवन्ति । लविध प्रत्ययवक्रियिकापेक्षया योज्यम् ।" [तस्वार्थ राजवार्तिक २/४३ टिप्पण न. ३ पृ. १५०] । ४. “तदादीनि भाज्यानियुगपदेकस्मिन्ना
२/४३ ।।" ५. "वै क्रिविकाहारकयोयुगपदसंभवात् पञ्चाभावाः। यस्य संयतम्याहारकं न तस्य वकिपिकम, यस्य देवस्य नारकम्प वा वैक्रियिकं न तस्याहारकमिति युगपत्पश्चातामसंभवः ।"[त. रा. बा.२/४३/