Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३२२ / गो. सा. जीवकाष्ट
समाधान — 'अनन्त वित्रसोपचयों से उपचित हैं', यह सूत्र अन्यथा बन नहीं सकता है। इस सूत्र से जाना जाता है कि वह अनन्त प्रविभागप्रतिच्छेदों से निष्पन्न होता है ।
गाथा २४९
शंका- एक प्रविभागप्रतिच्छेद के रहते हुए एक विस्रसोपचय न होकर अनन्त वित्रसोपचय संभव हैं ।
समाधान- यह ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसी अवस्था में उनका सम्बन्ध बिना कारण होता है, ऐसा प्रसंग प्राप्त हो जाएगा। यदि कहा जाय कि उसका विस्रसोपचयों के साथ बन्ध भी हो जाएगा सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जघन्य गुण वाले के साथ बन्ध नहीं होता' इस सूत्र के साथ विरोध आता है ।
जो दो गुणयुक्त वर्गणा के द्रव्य हैं, वे विशेष होन हैं और वे अनन्त वित्रसोपचयों से उपचित हैं ।। ५४० ।। *
शङ्का - यदि अनन्त प्रविभागप्रतिच्छेदों से युक्त जघन्यगुण में 'एक गुण' शब्द प्रवृत्त रहता है तो दो जघन्यगुणों में दो गुण' शब्द की प्रवृत्ति होनी चाहिए, अन्यथा 'दो' शब्द की प्रवृत्ति नहीं उपलब्ध होती ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जघन्यगुण के ऊपर एक अविभाग प्रतिच्छेद की वृद्धि होने पर दो गुण भाव देखा जाता है ।
शङ्का - एक ही प्रविभागप्रतिच्छेद की द्वितीय गुरण संज्ञा कैसे है ?
समाधान - क्योंकि मात्र उतने ही गुणान्तर की वृद्धि द्रव्यान्तर में देखी जाती है। गुण के द्वितीय अवस्था विशेष की द्वितीय गुण संज्ञा है और तृतीय अवस्था विशेष की तृतीय गुण संज्ञा है, इसलिए जघन्य गुण के साथ द्विगुणपना और त्रिगुणपना यहाँ बन जाता है । अन्यथा द्विगुणगुणयुक्त वर्गणा के द्रव्य ऐसा सूत्र प्राप्त होगा । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि इस प्रकार का सूत्र उपलब्ध नहीं होता । गुण युक्त वर्गणा के द्रव्य शलाकाओं की दृष्टि से पूर्व की शलाकाओं से भागहीन हैं।
इस प्रकार
शङ्का - जिस प्रकार पारिणामिक भाव रूप से स्थित हुए परमाणु रूप पुद्गलों में एक परमाणु के सम्बन्ध का निमित्तभूत वर्गणा गुण सम्भव है, उस प्रकार जीव से प्रवेद रूप इन प्रदारिकशरीर पुद्गलों में क्यों सम्भव नहीं है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व आदि कारणों से बन्ध होते समय ही जिसमें सब जीवों से अनन्तगुणो बन्धन गुणवृद्धि को प्राप्त हुए हैं तथा जीवों से पृथक् होकर भी जिन्होंने प्रदयिक मात्र का त्याग नहीं किया है, ऐसे प्रहारिक परमाणुयों में अनन्त बन्धन गुरण उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार
१. "न जघन्यगुणानाम् ||३४||" [ तत्वार्थ सूत्र . ५ ] । २. "जे विस्मासु एहि उवचिदा ।। ५४० ॥ [ धमल पु. १४ पृ. ४५० ]
दुगुरात वगाए दव्या ते विसेसहीणा मणतेह ३. धवल पु. १४ पृ. ४५० - ४५१ ।