Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २५-२५१
योगमार्गण। ३२३
तीन, चार, पाँच, संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त गुणयुक्त वर्गणा के जो द्रव्य हैं वे विशेष हीन हैं और वे अनन्त विनसोपचयों से उपचित हैं ॥५४१।। इसी प्रकार चार शरीरों की अपेक्षा जानना।
कर्म होर नोकर्म के उत्कृष्ट संचय का स्वरूप तथा स्थान उपकस्सटिदिचरिमे सगसगउक्कस्ससंचयो होदि । पणदेहाणं वरजोगाविससामग्गिसहियारणं ।।२५०॥ श्रावासया हु भयप्रद्धाउस्सं जोगसंफिलेसो य ।
प्रोकटुक्कट्टण्या छच्चेवे गुरिणवकम्मंसे ।।२५१॥ गाथार्थ-उत्कृष्ट योग आदि अपनी-अपनी सामग्री सहित पांचों ही शरीर वालों के उत्कृष्ट स्थिति के अन्त समय में अपना-अपना उत्कृष्ट संचय होता है। कमों के उत्कृष्ट संचय से युक्त जीव के उत्कृष्ट संचय करने के लिए ये छह आवश्यक कारण होते हैं -भवाद्धा, आयुष्य, योग, संवलेश, अपकर्षण, उत्कर्षण ।।२५०-२५१॥
विशेषार्थ-प्रौदारिक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र का स्वामी तीन पल्य की आयु वाला उत्तरकुरु और देवकुरु का अन्यतर मनुष्य होता है ।
स्त्रीवेद और पुरुषवेद के कारण तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्व आदि गुणों के कारण द्रव्य विशेष नहीं होता, इस बात का शान कराने के लिए अन्यतर (कोई भी) पद का निर्देश किया गया है ।
शङ्का-देवकुरु व उत्तरकुरु मनुष्य के अतिरिक्त अन्य के उत्कृष्ट स्वामित्व का किसलिए निषेध है ?
समाधान-क्योंकि अन्यत्र बहुत साता का अभाव है, क्योंकि असाता से श्रीदारिक शरीर के बहुत पुद्गल का अपचय होता है ।
शङ्का-उत्तरकुरु और देवकुरु के सब मनुष्य तीन पल्य की स्थिति वाले ही होते हैं, इसलिए 'तीन पल्य की स्थिति बाले के' यह विशेषण युक्त नहीं है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उत्तरकुरु ब देवकुरु के मनुष्य तीन पल्य की स्थिति वाले ही होते हैं, ऐसा कहने का फल वहाँ पर शेष नायुस्थिति के विकल्पों का निषेध करना है।
उसी मनुष्य ने प्रथम समय में तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योग से आहार ग्रहण किया । शरीर के योग्य पुद्गलपिण्ड का ग्रहण करना आहार है। तद्भवस्थ होने के द्वितीय या तृतीय
१. 'एवं ति चदु-पंच-छ-सत्त-अट्ठ-पथ-दस-संघज्ज-प्रसंखेज अगात-श्रण तणतगुग जुत्तबग्गाए दवा ते विमेसहोला प्रणतेहि विम्सासुवचएहि उचिदा !।५४१।। एवं चदुरणं समीराण ।।५४३।। [पथल पु. १४ पृ. ४५२-५३] । २. "पोरालिवसरीरस्म उक्करसयं पदेसग्गं कस्म ।। ४ १३।। अथादरस्म उत्तरकुम-देवकुरु-मणुमरसतिपलि दीवमाछदियस्स ॥४१८।।' [धवल पु. १४ पृ. ३६७-३६८] । ३. धवल पु. १४ पृ. ३६८-३६६ । ४. 'तेणेव पढमममय माहरएस परमसमय तम्भवत्येण उक्कस्सेश जोगेण पाहारियो॥४१६।। [प. पु. १४ पृ. ३६६ ||