Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३१२/गो. सा. जोयकाण्ड
गाथा २४१ कामण काययोग कम्मेव य फम्मभवं कम्मइयं जो दु तेरण संजोगो ।
कम्मइयकायजोगो इगिविगतिगसमयकालेसु ॥२४१॥' गाथार्थ--कर्मों का समूह अथबा कामणशरीर नामकर्म के उदय से होने वाली काय कामलाकाय है। उसके द्वारा होने वाला योग कार्मण काययोग है। यह योग एक, दो अथवा तीन समय काल तक होता है ||२४१।।
विशेषार्थ --विग्रहगति को प्राप्त वारों गतियों के जीवों के तथा प्रतर व लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केबलोजिन के कार्मणकाययोग होता है ।। ६० ।।'
विग्रह देह को कहते हैं। उसके लिए जो गति होती है, वह विग्रहगति है । यह जीव औदारिक आदि पारीरनामकर्मोदय से अपने-अपने शरीर की रचना करने में समर्थ नाना प्रकार के पुदगलों को ग्रहण करता है, अतएव संसारी जीवों के द्वारा शरीर का ग्रहण किया जाता है। इसलिए देह को विग्रह कहते हैं। ऐसे विग्रह अर्थात शरीर के लिए जो गति होती है वह विग्रहगति है। प्रथवा 'वि' का अर्थ विरुद्ध और 'ग्रह' का अर्थ 'घात' होने से विग्रह शब्द का अर्थ व्याघात भी होता है, जिसका अर्थ पुद्गलों के ग्रहण करने का निरोध होता है । इसलिए विग्रह अर्थात् पुद्गलों के ग्रहण करने के निरोध के साथ जो गति होती है, वह बिग्रहमति है। उसको भले प्रकार से प्राप्त जीव विग्रहगति समापन्न है। उ अर्थात विग्रहगति को प्राप्त जीवों के कामरणकाययोग होता है। जिससे सम्पर्ण शरी उस बीज भुत कार्मणशरीर को कार्मराकाय कहते हैं। वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से जो प्रात्मप्रदेशों का परिस्पन्द होता है वह योग है। कार्मग काय से जो योग उत्पन्न होता है वह कार्मणकाययोग है । वह विग्रहगति प्रर्थात् बक्रगति में विद्यमान जीवों के होता है। एक गति से दूसरी गति को गमन करने वाले जीवों के चार प्रकार की गतियाँ होती हैं, इषगति, पाणिमुक्तागति, लांगलि कागति और गोमूत्रिकामति । उनमें पहली इषगति विग्रहरहित होती है। शेष तीन गतियाँ विग्रहसहित होती हैं। सरल अर्थात् धनुष से छूटे हुए बाण के समान मोड़ारहित गति को इषगति कहते हैं । इस गति में एक समय लगता है। जैसे हाथ से तिरछे डाले गये जल की एक मोडाबाली गति होती है, उसी प्रकार संसारी जीवों की एक मोडावाली गति पाणिमुक्ता गति है। यह गति दो समयवाली होती है । जैसे हल में दो मोड़े होते हैं, उसी प्रकार दो मोड़े वाली गति लांगलिका गति है। यह गति तीन समयवर्ती होती है। जैसे-गाय का चलते समय मूत्र का करना अनेक मोड़े वाला होता है उसी प्रकार तीन मोड़ेवाली गति गोमूत्रिका गति है। यह चार समय वाली होती है। इषुगति को छोड़कर शेष तीनों विग्रहगतियों में कार्मण काययोग होता है।
सब कर्मों का प्ररोहण अर्थात् प्राधार उत्पादक और सुख-दुःख का बीज है इसलिए कार्मण शरीर है ।।२४१॥५ कर्म इसमें उगते हैं इसलिए कार्मणशरीरप्ररोहण है। कुष्माण्डफल के वृत्त के समान कामशरीर सब कर्मों का आधार है। सब कर्मों का उत्पादक भी है, क्योंकि कार्मणशरीर
रीर उत्पन
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१. धवल पु. १ पृ. २६५, प्रा. पं. सं. प. २१ गा. ६ व पृ. ५७८ गा. ६३ । २. "कम्मइय कायजोगो विग्महगइसमावण्णागणं केवलीयं वा समुग्घाद गाणं ॥६०॥ [धवल पु. १ पृ. २६८] । ३. व. पु. १ पृ. २६६३०० । ४. धवल पु. १ पृ. ३००। ५. सिख कम्माणं पाहणुप्पादयं सुदुक्खाणं विजमिदि कम्मइय ।।२४१।।" [धवल पु. १. पृ. ३२८] ।