Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
३१गो. सा, जीवकाण्ड
गाथा २९५-२४०
ही होता है ।।५।।
शङ्कर-यहाँ पर क्या प्राहारक ऋद्धि की प्राप्ति से संपतों को ऋद्धिप्राप्त कहा गया है, या उनको पहले बैंक्रियिक ऋद्धि प्राप्त हो गई है इसलिए उनको ऋद्धिप्राप्त कहा गया है। इन दोनों पक्षों में से प्रथम पक्ष तो ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि इतरेतराश्रय दोष पाता है। इसी को स्पष्ट किया जाता है.... जब तक पाहारक ऋद्धि प्राप्त नहीं होती तब तक उनको ऋद्धिप्राप्त माना नहीं जा सकता, और जब तक वे ऋद्धिप्राप्त न हों तब तक उनके पाहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं हो सकती। दूसरा विकल्प भी नहीं बन सकता क्योंकि एक ऋद्धि का उपयोग करते समय उनके दूसरी ऋद्धियों की उत्पत्ति का अभाव है। यदि दूसरी ऋद्धियों का सद्भाब माना जाता है तो माहारक ऋद्धिबालों के मनःपर्ययज्ञान की उत्पत्ति भी माननी चाहिए. क्योंकि दूसरी ऋद्धियों के समान इसके होने में कोई विशेषता नहीं परन्तु याहारक ऋद्धि वाले के मनःपर्ययज्ञान माना नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर आगम से विरोध आता है।
समाधान–प्रथम पक्ष में जो इतरेतराश्रय दोष दिया है, वह तो आता नहीं है, क्योंकि पाहारक ऋद्धि स्वतः की अपेक्षा करके उत्पन्न नहीं होती है, क्योंकि स्वत: से स्वतः की उत्पत्तिरूप क्रिया के होने में विरोध पाता है। संयम-अतिशय की अपेक्षा आहारक ऋद्धि की उत्पत्ति होती है, इसलिए 'ऋद्धिप्राप्त संयतानाम्' यह विशेषण भी बन जाता है। यहाँ पर दूसरी ऋद्धियों के उत्पन्न नहीं होने पर भी कारण में कार्य का उपचार करके ऋद्धि के कारणभूत संयम को ही ऋद्धि कहा गया है, इसलिए ऋद्धि के कारणरूप संयम को प्राप्त संयतों को ऋद्धिप्राप्तसंयत कहते हैं और उनके पाहारक ऋद्धि होती है, यह बात सिद्ध हो जाती है। अथवा संयमविशेष से उत्पन्न हुई आहारकशरीर के उत्पादनरूप शक्ति को आहारक ऋद्धि कहते हैं, इसलिए भी इतरेतराश्रय दोष नहीं पाता है। दूसरे विकल्प में दिया गया दोष भी नहीं आता है, क्योंकि एक ऋद्धि के साथ दूसरी ऋद्धियाँ नहीं होती हैं, ऐसा माना नहीं गया। एक अात्मा में युगपत् अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न नहीं होती, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि गणधरों के युगपत् सातों ऋद्धियाँ होती हैं।
शङ्का-आहारक ऋद्धि के साथ मनःपर्ययज्ञान का विरोध बहा गया है ?
समाधान-यदि पाहारक ऋद्धि के साथ मनःपर्ययज्ञान का विरोध है तो रहा आवे, किन्तु आहारक ऋद्धि का अन्य सम्पूर्ण ऋद्धियों के साथ विरोध है, ऐसा नहीं कहा गया है।
आहारकमिश्रकाययोगी का जघन्य काल व उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । शङ्का यहाँ एक समय जघन्यकाल क्यों नहीं होता ? समाधान नहीं होता, क्योंकि यहाँ भरण और योग परावृत्ति का होना असम्भव है ।
१. "आहारकायजोगो प्राहार मिम्सकाय जोगे संजदारणमिड्ढिपत्ताणं ।। ५६ ।। {धवल पु. १ पृ. २६७] । २. धवल पु. १ पृ. २६७-२६५। ३. प्रवल पु. १ पृ. २९८ । ४. "आहारमिस्सकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ||१८|| जहण्णरण प्रतीमुहृत्तं ।।१०।। उक्कस्सेण अंतोमुगुत्तं ।।११।। (धवल पृ. ७ पृ. १५५)। ५. धवल पु. ७. १५५ ।