Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३०८/गो. सा. जीवकाण्ई
माथा २३५-२४० समाधान नहीं, क्योंकि पागम में जीव और शरीर के वियोग को मरण नहीं कहा गया। अन्यथा उनके संयोग को उत्पत्ति मानना पड़ेगा।
शड्डा-जीव और शरीर का संयोग उत्पत्ति रहा पावे, इसमें क्या हानि है ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि पूर्व भव में ग्रहण किये हुए पायुकर्म के उदय होने पर जिन्होंने उत्तर भव सम्बन्धी आयुकर्म का बन्ध कर लिया है और भुज्यमान प्रायु से सम्बन्ध छूट जाने पर भी जिन्होंने पूर्व अथवा उत्तर इन दोनों शरीरों में से किसी एक शरीर को प्राप्त नहीं किया है ऐसे जीवों की उत्पत्ति पाई जाती है। इसलिए जीव और शरीर के संयोग को उत्पत्ति नहीं कह सकते।
शङ्का-उत्पत्ति इस प्रकार की रह आवे, फिर भी मरण तो जीव और शरीर के वियोग को ही मानना पड़ेगा?
समाधान—यह कहना ठीक है, तो भी जीव और शरीर का सम्पूर्ण रूप से वियोग ही मरण कहा जा सकता है। उनका एकदेश से वियोग होना मरण नहीं कहा जा सकला, क्योंकि जिनके कण्ठ पर्यन्त जीवप्रदेश संकुचित हो गये हैं ऐसे जीवों का भी मरण नहीं पाया जाता है। यदि एकदेश वियोग को भी मरण माना जावे तो जीवित शरीर से छिन्न होकर जिसका हाथ अलग हो गया है उसके साथ व्यभिचार दोष या जाएगा। इसी प्रकार पाहारक शरीर को धारण करना, इसका अर्थ सम्पूर्ण रूप से औदारिक शरीर का त्याग करना नहीं है, जिससे आहारक शरीर को धारण करने वाले का मरण माना जावे।
यह पाहारक शरीर सूक्ष्म होने के कारण गमन करते समय वैक्रियिक शरीर के समान न तो पर्वतों से टकराता है, न शस्त्रों से छिदता है और न अग्नि से जलता है। प्राहारक और कार्मण की वर्गणाओं से उत्पन्न हुए वीर्य के द्वारा जो योग होता है वह आहारक मिश्र काययोग है ।'
___ असंयम-बहुलता, आज्ञा-कनिष्ठता और अपने क्षेत्र में विरह, [केवली, श्रुतकेवली का अभाव] इस प्रकार इन तीन कारणों से साधु पाहारक शरीर को प्राप्त होते हैं। जल, स्थल और आकाश के एक साथ दुष्परिहार्य सूक्ष्म जीवों से प्रापूरित होने पर असंयम बहुलता होती है । उसका परिहार करने के लिए हंस और वस्त्र के समान धवल, अप्रतिहत, आहार वर्गणा के स्कन्धों से निर्मित और एक हाथ प्रमाण उत्सेधवाले आहारक शरीर को प्राप्त होते हैं इसलिए पाहारक शरीर का प्राप्त करना असंयम-बहुलता निमित्तक कहा जाता है । अाझा, सिद्धान्त और आगम ये एकार्थवाची शब्द हैं। उसकी कनिष्ठता अर्थात् अपने क्षेत्र में उसका थोड़ा होना प्राज्ञाकनिष्ठता है। यह द्वितीय कारण है। प्रागम को छोड़कर द्रव्य और पर्यायों के अन्य प्रमाणों के विषय न होने पर तथा उनमें सन्देह होने पर, अपने सन्देह को दूर करने के लिए परक्षेत्र में स्थित 'श्रुत केवली और केवली के पादमुल में जाता हूँ, ऐसा विचार कर आहारक शरीर रूप से परिण मन करके गिरि, नदी, सागर, मेरुपर्वत, कुलाचल और पाताल में केबली और श्रत केवली के पास जाकर तथा विनय से पूछकर सन्देहरहित होकर लौट पाता है। परक्षेत्र में महामुनियों के केवलज्ञान की उत्पत्ति और
१. धवल पु. १ पृ. ५६५-५६३ । २. धवल पु. १ पृ. ५६३ ।
३. धवल टु. १४ पृ. ३२६ ।