Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
३००/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २२५-२२७
• जाते हैं वे उपमा सत्य हैं; अंस पहलोपम: स्य नाम गडढे का है। जिसने असंख्यातासंख्यात रोम
के अग्रभाग उस गड्ढे में आते हैं, उतने असंख्यातासंख्यात समय प्रमाण काल को पल्योपम काल कहते हैं।
अनुमयवचन के भेदों का कथन आमंतरिग पारणवरणी याचरिण यापुच्छरणीय पण्णवरणी। पच्चक्खाणी संसयययणी इच्छाणुलोमा य ॥२२॥ णवमी अणक्खरगदा असच्चमोसा हवंति भासाओ।
सोदाराणं जम्हा वत्तावत्तं ससंजराया ॥२२६।। गाथार्थ-आमंत्रणी, आज्ञापनी, याचनी, आपृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, संशयवचनी, इच्छानुलोम्नी, अनारगता ये मव प्रकार की अनुभयात्मक भाषा है, क्योंकि सुनने वाले को व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही अंशों का ज्ञान होता है ।।२२५-२२६।।
विशेषार्थ-~"हे देवदत्त यहाँ पायो" इस प्रकार के बुलाने वाले बचन प्रामंत्रणी भाषा है। 'यह कार्य करों इत्यादि प्राज्ञारूप वचन आज्ञापनी भाषा है। यह मुझको दो' इत्यादि याचनारूप वचन याचनीभाषा है । "यह क्या है" इत्यादि प्रपनारमक वचन आपृच्छनी भाषा है। "मैं क्या करूँ" इत्यादि सूचनात्मक बचन प्रज्ञापनी भाषा है। "मैं यह त्याग करता हूँ" ऐसे त्याग या परिहार रूप वचन प्रत्याख्यानी भाषा है । 'यह बकपंक्ति है या ध्वजा पंक्ति है' इस प्रकार के संशयात्मक वचन संशयवचनी भाषा है । 'मुझे भी ऐसा ही होना चाहिए' इस प्रकार की इच्छा व्यक्त करने वाले बचन इच्छानुलोम्नी भाषा है । द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों की अनक्षरात्मक भाषा होती है, जो अपनी-अपनी समस्या रूप संकेत को व्यक्त करने वाली है। यह नवमी अनक्षरगत भाषा है । यह नी प्रकार की भाषा अनु भय वचन रूप है, क्योंकि इनके सुनने से व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही अंशों का बोध होता है। सामान्य अंश व्यक्त होने से ये भाषाएँ असत्य भी नहीं हैं और विशेष अंश व्यक्त न होने से ये सत्य भी नहीं हैं।
शा-अनक्षरी भाषा में सामान्य अंश भी व्यक्त नहीं है, फिर उसमें अनुभयवचनपना कैसे संभव है?
समाधान--बोलने वाले का अनक्षर भाषा द्वारा पुख-दुःखादि के अलवन द्वारा हर्ष आदि का अभिप्राय जाना जाता है। अतः अनक्षरी भाषा में भी सामान्य अंश व्यक्त है। अनक्षरी भाषा वाले जीवों के संकेत रूप वचन होते हैं, उन वचनों द्वारा उनके सुख-दुःख के प्रकरण आदि का अवलम्बन करके उसके माध्यम से उनके हर्ष श्रादि का अभिप्राय जाना जाता है ।
चारों प्रकार के मनोयोग तथा वचनयोग का मूल कारगर मणवयरगाणं मूलरिणमित्तं खलु पुण्णदेहउदो दु ।
मोसुभयाणं मूलरिणमित्तं खलु होदि आवरणं ॥२२७॥ १. सिद्धान्त चक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्र मूरि टीका अनुसार । २. सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्रकृत टीका अनुसार ।