Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
३०२/गो. सा. जीवकापड
गाथा २३०-२३१ शङ्का-केवली के द्रव्य मन को उत्पन्न करने में प्रयत्न विद्यमान रहते हुए भी वह अपने कार्य को क्यों नहीं करता है?
समाधान-नहीं, क्योंकि केवली के मानसिक ज्ञान के सहकारी कारण रूप क्षयोपशम का अभाव है, इसलिए उनके मनोनिमित्तक ज्ञान नहीं होता है।
शङ्कर-जबकि केबली के यथार्थ में अर्थात् क्षायोपशमिक मन नहीं पाया जाता है, तो उससे सत्य और अनुभय इन दो प्रकार के वचनों की उत्पत्ति कसे हो सकती है ?
समाधान --नहीं, क्योंकि उपचार से मन के द्वारा उन दोनों प्रकार के वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है।
सौदारिक काययोग और औदारिक मिश्रयोग पुरुमहदुदारुराल एयट्ठो संविजाण तह्मि भवं । औरालियं तमुच्चइ पौरालियकायजोगो सो ॥२३०॥ पोरालिय उत्तत्थं विजाण मिस्संत अपरिपुण्णं तं ।
जो तेरण संपजोगो पोरालियमिस्सोगो सो ॥२३॥ गाथार्थ-पुरु, महान् उदार और उराल ये शब्द एकार्थवाचक हैं। उदार में जो होता है वह प्रौदारिक है और उसके निमित्त से होने वाला योग प्रौदारिक काययोग है ।।२३०।।
हे भव्य ! ऐसा जानो कि जिसका पहले स्वरूप कहा है. वही शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है अर्थात् शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है तब तक मिश्र है और उसके द्वारा होने बाले योग को श्रीदारिक मिश्र योग कहते हैं ।।२३१॥
विशेषार्थ-औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीवप्रदेशों में परिस्पन्द का कारणभूत जो प्रयत्न होता है वह औदारिककाययोग है। कार्मरण और औदारिक वर्गणाओं के द्वारा उत्पन्न हुए वीर्य से जीव के प्रदेशों में परिस्पन्द के लिए जो प्रयत्न होता है वह औदारिकमिधकाययोग है। उदार, पुर और महान् ये एक ही अर्थ के वाचक शब्द हैं। उसमें जो शरीर उत्पन्न होता है वह प्रौदारिक शरीर है।
शङ्का-प्रौदारिकगरीर महान् है, यह वात नहीं बनती है, क्योंकि वर्गणा खण्ड में कहा है-- *प्रौदारिकशरीर द्रव्य संबन्धी वर्गणाओं के प्रदेश सबसे अल्प हैं । उससे असंख्यातगुणे वैक्रियिकशरीर १. धवल पु. १ पृ. २८४ व २८५। २. ये दोनों गाथाएँ धवल पु. १ पृ. २६१ पर गाथा १६० व १६१ है तथा प्रा.पं.सं. ५२० पर गाथा ६३ व १४ है किन्तु कुछ अक्षरों में अन्तर है। ३. यवल पृ. १ पृ. २८१ व २६ । ४. "पदेसअप्पाबहुए ति सवयोवामो श्रीरालियसरीरदव्वयगणाप्रो पदेस ट्ट दाए ।।७८५।। वे उवि यसरीर दब्वबम्मरणामो पदेसदाए प्रसस्नेज्जगुणाग्रो ॥७८६।। प्राहारसरीर दत्ववमहाशी पदेसवाए कसंखेज्जगुणायो ।७८७।। तेजासरीरदव्य वम्गरगायो पदेसट्ठदाए प्रपंतगुणाभो ।।७८८|| भासा-ममा-क.म्म यसरदाववागणाम्रो पदेसठ्ठदाए प्रपंतमुरणामो ||७८६| धवल पु. १४ पृ. ५६०-५६२] ।