Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
३०४ / गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २३२-२३३
कर्मशरीर के संबन्ध से युक्त होकर ही श्रदारिक वर्गणाओं से योग होता है। श्रदारिक वर्गणा और कार्मणवर्गणा इन दोनों के निमित्त से योग होता है, अत: यह प्रदारिक मिश्र काययोग है । औदारिक काययोग और श्रदारिकमिश्रकाययोग तिर्यंचों और मनुष्यों के होता है । " शङ्का -- देव और नारकियों के औौदारिकशरीर नामकर्म का उदय क्यों नहीं होता ?
समाधान- नहीं होता, क्योंकि स्वभाव से ही उन के श्रीदारिक शरीर नामकर्म का उदय नहीं होता | अथवा देवगति और नरकगति नामकर्म के उदय के साथ औदारिक शरीर नामकर्म का विरोध है, इसलिए उनके औदारिक शरीर का उदय नहीं पाया जाता । फिर भी तियंचों और मनुष्यों के प्रदारिक और औदारिक मिश्रकाययोग ही होता है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि इस प्रकार का नियम करने पर तिर्यंचों और मनुष्यों में कार्यंणकाययोग आदि के प्रभाव की आपत्ति आ जाएगी । इसलिए प्रदारिक और औदारिकमिश्र काययोग मनुष्यों के और तिचों के ही होता है, ऐसा नियम जानना चाहिए।
वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्रकाययोग
विविहगुरण इड्डितं विविकरियं वा हु होदि वेगुध्वं । तिस्से भवं च णेयं बेगुब्वियकायजोगो सो ॥ २३२ ॥ ३ वेगुव्वियत्तत्थं विजारण मिस्सं तु अपरिपुष्णं तं । जो तेरण संपजोगो गुव्विय मिस्सजोगो सो ॥ २३३॥ *
गाथार्थ–विवध गुण-ऋद्धियों से युक्त प्रथवा विशिष्ट क्रियावाला शरीर विक्रिय अथवा विमुर्व है । उसमें उत्पन्न होने वाले योग को वैगुर्विक वैक्रियिक काययोग जानना चाहिए। हे भव्य ! जब तक उक्त स्वरूपवाले वैऋियिक शरीर की पर्याप्त अपरिपूर्ण रहती है तब तक वक्रियिक मिश्रकाय जानना चाहिए। और उसके द्वारा होने वाला संप्रयोग वैकियिक मिश्र काययोग है ।।२३२-२३३ ।।
विशेषार्थ - विविध गुण - ऋद्धियों से युक्त है इसलिए वैऋियिक है । * रिंगमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व, वशित्व और कामरूपित्व इत्यादि अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ हैं। इन ऋद्धि गुणों से युक्त है, ऐसा समझकर वैश्रिधिक है, ऐसा कहा है ।
विविध अर्थात् नाना प्रकार की शुभ-अशुभ रूप अणिमा महिमा आदि गुण, उनकी ऋद्धि अर्थात् महत्ता से संयुक्त देवनारकियों का शरीर वह वैगुर्व है, वैगुर्विक या वैक्रियिक है। जिसमें
१. "ओरालियकाय जोगो श्रोरालिय मिस्स कायजोगो तिरिषद मणुरसारणं ॥ ५७॥ " ३. घदल पु. १ पृ. २६१ गाथा १९२ व प्रा. पं.स. पू. २१
।
२. ष. पु. १ पृ. २९५-२६६ । है किन्तु कुछ शब्द भेद है गाथा ६० है किन्तु शब्द भेद नं. २३३ पर लिखी गई है । ६. धवल पु. १४ पृ. ३२५ ।
[ घबल पु. गाधा ६५
१ पृ. २६५ ] | पृ. ५७८ गाया
४. घवल पु. १ पृ. २६२ गाथा १६३ व प्रा.पं.सं. पू. २१ गाथा ६६ व पृ. ५७८ यह गाथा नं. २३४ है किन्तु धमल व पंचसंग्रह की गाथाओं के अनुसार यह ५. "विविहइङ्किगुण जुत्तमिदि वेजविषयं ।। २३८ ।। श्रवल पु. १४. ३२५ ] /
I