Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २३०-२३१
योगमार्गरण:/३०३
द्रव्यसंबन्धी वर्गणा के प्रदेश हैं । उससे असंख्यातगुणे माहारकशरीर द्रव्यसंबन्धी वर्गणा के प्रदेश हैं । उससे अनन्तगुणे तेजसशरीर द्रव्य संबन्धी वर्गणा के प्रदेश हैं। उससे अनन्तगुरणे भाषाद्रव्यवगंगा के प्रदेश हैं। उससे अनन्तगुरो मनोद्रव्यवर्गणा के प्रदेश हैं और उससे अनन्तगुणे कार्मणशरीर द्रव्यवर्गणा के प्रदेश हैं।"
समाधान-प्रकृत में ऐसा नहीं है, क्योंकि अवगाहना की अपेक्षा औदारिकशरीर को स्थलता बन जाती है। जैसाकि वर्गणा खण्ड में कहा है- १कार्मारा शरीर संबन्धी द्रव्यवर्गणा की अवगाहना सबसे सूक्ष्म है । मनोद्रव्य वर्गणा की अवगाहना इससे असंख्यातगुणी है । भाषाद्रव्यवर्गणा की अवगाहना इससे असंख्यातगुरगी है। तेजस शरीर संबन्धी द्रव्यवर्गणा की अवगाहना इससे असंख्यातगुणी है। प्राहारशरीरसंबन्धी द्रव्यवर्गणा की अवगाहना इससे असंख्यातगुणी है। वैक्रियिक शारीर संबन्धी द्रव्यवर्गणा की अवगाहना इससे असंख्यातगुणी है । औदारिक शरीर संबन्धी द्रव्यवर्गणा . की अवगाहना इससे असंख्यातगुणी है।
अथवा अवगाहना की अपेक्षा उगल है। पोप शीरों की प्रगाहमा परा शरीर की अबगाहना बहुत है, इसलिए प्रौदारिकशरीर उराल है।
शङ्का--इसकी अवगाहनाके बहुत्व का ज्ञान कैसे होता है ?
समाधान—क्योंकि महामत्स्य का प्रौदारिक शरीर पांच सौ योजन विस्तार वाला और एक हजार योजन अायाम वाला होता है। इससे इसकी अवगाहना का बहुत्व जाना जाता है।
___ शङ्का-सूक्ष्मपृथिवी, जल, अग्नि, वायु और साधारण शरीरों के स्थूलपने का अभाव है। उन सूक्ष्मपृथिवी आदि शरीरों में औदारिक शरीर कैसे सम्भव है ?
समाधान नहीं; क्योंकि सूक्ष्मतर वैक्रियिक शरीर प्रादि की अपेक्षा सूक्ष्मशरीरों में अर्थात सूक्ष्म पृथिवीकायिक प्रादि जीवों के सूक्ष्मशरीरों में स्थूलपना बन जाता है अथवा परमागम में सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि जीवों के शरीर को औदारिक कहा है।
शङ्खा---उदार शब्द से उराल शब्द की निष्पत्ति होने पर प्रौदारिक शरीर की महत्ता कैसे वनती है?
समाधान--क्योंकि प्रौदारिक शरीर निवृत्तिगमन का हेतु है और अठारह हजार शीलों की उत्पत्ति का निमित्त है, इसलिए इसकी महत्ता बन जाती है।
शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल तक औदारिक मिश्रकाययोग होता है, क्योंकि उस समय मात्र औदारिक वर्गणाओं के निमित्त से प्रात्म-प्रदेश परिस्पन्द नहीं होता, किन्तु
१. "प्रोग्याहरायप्पाबहुए नि सब्वत्थोदाम्रो कम्मइयसरीरदश्ववग्गणाग्रो प्रोगाहगाए ।।७६०|| मरणदानवग्गणामो प्रोगाणाए प्रसंखेज्ज गुणासो ६१॥ मासादयवग्गणाप्रो प्रोगाहरणाए असंवेज्जगुणायो ।।७६२६ तेजासरीरदबव रगरगामी प्रोगाहणाए असंखेज्जगुगायो ||७६३॥ माहारसरीरदब्वबग्गरायो योगाहणाए असंखेज्जगुरणपो ॥७६४।। वेवियगरीर दव्य वरगरणामो घोगाहगाए असखेज्जगुरायो ।।७६५।। योरालियसरीरपव्वदागरणायो प्रोगाहणाए असंखेज्जगुहाप्रो ॥७६६||" बदल गु. १४ पृ. ५६२-५६४ । २. धवल पु. १४ पृ. ३२२। ३. सिद्धान्तनवती थीमदमयचन्द्र कृत टीका। ४. धवल पू. १४ पृ. ३२३ ।