Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २२८-२२६
योगमार्गगणा/३०१
गाथार्थ - (सत्य व अनुभय) मनोयोग और वचनयोग का मूल कारण पर्याप्ति नामकर्म का उदय और शरीर नामकर्म का उदय है । मृषा व उभय मनोयोग और वचन योग का मूल कारण प्रावरण का तीन अनुभागोदय है ।।२२७।।
विशेषार्थ · गाथा के पूर्वार्ध में यद्यपि सामान्य मन व बचन यांग का कथन है किन्तु सामान्य मन व वचन से सत्ता ब अनभय मनोयोग और वचनयोग का ग्रहण होता है क्योंकि विशेष के बिना सामान्य 'स्वरविषारण बत्' है।' मृषा और उभय का कथन गाथा के उत्तरार्ध में किया गया है इसलिये भी पूर्वार्ध में सामान्य से सत्य व अनभय का ग्रहण होता है। मषा व उभय मनोयोग और वचनयोग का मुख्य कारण आवरणकर्म के अनुभाग का उदय है अन्यथा क्षीणमोह बारहवें गणस्थान में मृषा व उभय मनोयोग और बचनयोग का कथन न किया जाता। मात्र मोहनीय कर्म ही मृषा व उभय मनोयोग और वचनयोग का कारण नहीं है, यद्यपि केबली भगवान के यथार्थ ज्ञान होने से सत्य बचनयोग तो संभव' है तथापि केवली के बचनों के निमित्त से श्रोता को संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है क्योंकि श्रोता क्षायोपशमिक ज्ञान वाला तथा अतिशय रहित है इसलिए केवली के अनुभयवचन योग भी सिद्ध हो जाता है।'
___सयोगकेवली के मनोयोग की सम्भावना मणसहियाणं वयणं दिट्ठ तप्पुयामिदि सजोगाए । उत्तो मणोधयरेरिंगदियणाण होगम्मि ॥२२८।। अंगोवंगुदयादो दवमरण? जिरिंणदचंदाह्म ।
मरगवागरणखंधाणं आगमरणादो दु भणजोगो ॥२२६।। गाथार्थ--मनसहित जीवों के वचन प्रयोग मनोज्ञान पूर्वक ही होता है अतः इन्द्रियज्ञान रहित सयोगकेबली में उपचार से मनोयोग कहा गया है। अङ्गोपाङ्ग नामकर्मोदय से द्रव्य मन होता है, उस द्रव्य मन के लिये केबली भगवान के मनोवर्गणाओं का आगमन होता है, इसलिए भी मनोयोग कहा गया है ॥२२८-२२६।।
विशेषार्थ- शङ्खा केवली के अतीन्द्रिय ज्ञान होता है, इसलिए उनके मन नहीं पाया
जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उनके द्रव्य मन का सद्भाब पाया जाता है ।
शङ्का-केवली के द्रव्यमन का सद्भाव रहा भावे, परन्तु वहाँ पर उसका कार्य नहीं पाया जाता है ?
समाधान द्रव्य मन के कार्यरूप क्षायोपशामिक ज्ञान का अभाव भले ही रहा ग्रावे, परन्तु द्रव्य मन के उत्पन्न करने में प्रयत्न तो पाया जाता है, क्योंकि द्रव्य मन की बर्गरगानों को लाने के लिए होने वाले प्रयत्न में कोई प्रतिबन्धक कारण नहीं पाया जाता। इसलिए यह सिद्ध हुया कि उस मन के निमित्त से जो आत्म-परिस्पन्द रूप प्रयत्न होता है, वह मनोयोग है।
१. "निविशेप हि सामान्यं भवेत् ख र विषाणवत ।" [अालापपद्धति गा.६] । २. धवल पु. १ पृ. २८३ ।