Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २२२-२२४
योगमार्गगा / २६६
गाथार्थ - जनपद सत्य, सम्मति सत्य, स्थापना सत्य, नाम सत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहार सत्य, सम्भावना सत्य भाव सत्य, उपमा सत्य । यह दस प्रकार का सत्य है । जैसे ( १ ) भक्त, (२) देवी ( ३ ) श्री चन्द्रप्रभु प्रतिमा, (४) जिनदत्त, (५) श्वेत ( ६ ) लम्बा, बडा, (७) भात पकता है, (६) इन्द्र जम्बूद्वीप को उलटा कर सकता है, (६) पाव वचन, (१०) पल्योपम ; ये क्रमसे जनपद सत्य श्रादि के दृष्टान्त हैं ||२२२-२२४ ।।
विशेषार्थ - ( १ ) जिस देशमें जो शब्द रूढ़ हो रहा है या प्रवृत्ति में प्रारहा है वह जनपदसत्य है, जैसे श्रोदन को महाराष्ट्र में भातु कहते हैं, प्रांध्रप्रदेश में वंटक या मुकूडु कहते हैं । कर्णाट देशमें 'कुलु' कहते हैं । द्रविड़ देश में 'चोर' कहते हैं। इस प्रकार श्रोदन भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न नामों से कहा जाता है। जिस देश में 'प्रोदन' जिस नाम से कहा जाता है उस देश मे वह शब्द जनपद सत्य है । ( २ ) संवृति अर्थात् कल्पना और सम्मति अर्थात् बहुत मनुष्य उसी प्रकार मानते हैं अथवा सर्वदेश में समान रूप से रूढ़ नाम संवृति सत्य है, इसी को सम्मति सत्य भी कहते हैं जैसे पटरानी के अतिरिक्त अन्य महिलाओं को देवी कहना । (३) एक वस्तु में अन्य वस्तु की स्थापना करके उसे मुख्य वस्तु के नाम से कहना स्थापना सत्य है जैसे श्री चन्द्रप्रभ तीर्थंकर की प्रतिमा को श्री चन्द्रप्रभ कहना 1 ( ४ ) अन्य अपेक्षा रहित मात्र व्यवहार के लिए किसी का नाम रखना । जैसे मात्र व्यवहार के लिए किसी व्यक्ति का नाम जिनदत्त रख देना । यद्यपि वह जिनके द्वारा दिया हुआ नहीं है तथापि मात्र व्यवहार के लिए जिनदत्त कहा जाता है। ( ५ ) यद्यपि पुद्गल में अनेक गुण हैं तथापि रूप की मुख्यता से कहना रूप सत्य है, जैसे मनुष्य में स्पर्श-रस-गंध व यादि अनेक गुण विद्यमान हैं तथापि गोरा रूप होने के कारण गोरा मनुष्य कहना । इसमें व गुरण की मुख्यता है अन्य गुण गौण हैं । यह रूप सत्य है । ( ६ ) अन्य वस्तु की अपेक्षा से विवक्षित वस्तु को हीन या अधिक कहना वह प्रतीत्य सत्य है इसको श्रापेक्षिक सत्य भी कहा जाता है । जैसे यह दीर्घ है सो ह्रस्व की अपेक्षा दीर्घ कहा गया है । यद्यपि दीर्घ की अपेक्षा वह लघु भी है, परन्तु उसकी विवक्षा नहीं है। ( ७ ) नैगमादि नयों
से किसी नय की मुख्यता से वस्तु को कहना बहू व्यवहार सत्य है । जैसे नंगम नय की मुख्यता से 'भात पक रहा है।' यद्यपि चावलों के पकने के पश्चात् भात होगा । परन्तु भात पर्याय रूप परिणमन होने वाला है, भ्रतः नैगम नय की अपेक्षा उसको भात कहने में कोई दोष नहीं है । यह व्यवहार सत्य है । अथवा संग्रह नय की अपेक्षा सर्वपदार्थ सत् रूप हैं क्योंकि सत् कहने से सर्व पदार्थों का ग्रहण हो जाता है यह भी व्यवहार सत्य है । (८) श्रसम्भव का परिहार करता हुआ सम्भावना की अपेक्षा वस्तु-धर्म का विधान करना सो सम्भावना सत्य है जैसे इन्द्र में जम्बूद्वीप को उलटने की शक्ति है । यद्यपि इन्द्र ने जम्बुद्वीप को न कभी उलटा है और न उलटेगा तथापि इन्द्र की शक्ति के विधान की अपेक्षा यह सत्य है । यह सम्भावना सत्य है । इसमें क्रिया की अपेक्षा नहीं रहती, क्योंकि क्रिया श्रनेक बाह्य कारणों के मिलने पर उत्पन्न होती है । ( ६ ) अतीन्द्रिय पदार्थ के सम्बन्ध में सिद्धान्तवचन अनुसार विधि व निषेध का संकल्प रूप परिणाम सो भाव है । उस भाव को कहने वाले वचन भाव सत्य हैं। जैसे जो सूख गया है या अग्नि में पकाया गया है या यंत्र द्वारा छिन्न-भिन्न किया गया है अथवा खटाई वा नमक से मिश्रित वस्तु प्रासुक है; इसका सेवन करने से पाप नहीं होता ऐसा पापवर्जनरूप वचन भाव सत्य है । यद्यपि उसमें इन्द्रिय ग्रेगोचर सूक्ष्म जीवों की सम्भावना हो सकती है किन्तु प्रतीन्द्रिय ज्ञानी ने श्रागम में प्रासूक कहा है अतः उनको प्राक कहना भाव सत्य है । (१०) जो किसी प्रसिद्ध पदार्थ की समानता श्रन्य पदार्थ में कहना वह उपमा सत्य है । अथवा दूसरे प्रसिद्ध सदृश पदार्थ को उपमा कहते हैं । उपमा के आश्रय से जो वचन बोले