Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २२०-२२१
योगमार्गा/२६७
विशेषार्थ-"धचिोगो चउदिवहो सच्चचिजोगो मोसवचिजोगो सच्चमोसचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो चेदि" [धवल पु. १ पृ. २८६] ।
बचनयोग चार प्रकार का है:-सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचन योग और अनुभय वचनयोग । सामान्य बचनयोग और अनुभय वचनयोग द्वीन्द्रिय जीव से लेकर सयोगकेवली तेरहवे गुणस्थान तक होता है।
शा-अनुभय मन के निमित्त से जो वचन उत्पन्न होता है वह अनुभय वचन है, यह पूर्व में कथन किया गया है। ऐसी अवस्था में द्वीन्द्रियादि असंज्ञीजीवों के अनुभय वचनयोग कैसे हो सकता है ?
समाधान - यह कोई एकान्त नहीं है कि सम्पूर्ण बचन मन से ही उत्पन्न होते हैं । यदि सम्पूर्ण वचनों की उत्पत्ति मन से ही मान ली जावे तो मन रहित केवलियों के वचनों का अभाव प्राप्त होगा।
शङ्का-विकलेन्द्रिय जीवों के मन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती और ज्ञान के बिना वचनों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती ?
___ समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति है, यह कोई एकान्त नहीं है। यदि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह एकान्त मान लिया जाता है, तो शेष इन्द्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि सम्पूर्ण ज्ञान की उत्पत्ति मन से मानते हो । अथवा मन से समुत्पनत्वरूप धर्म इन्द्रियों में रह भी तो नहीं सकता, क्योंकि दृष्ट, श्रुत और अनुभूत को विषय करनेवाले मानस ज्ञान का दूसरी जगह मानने में विरोध पाता है । यदि मन को चक्षु आदि इन्द्रियों का सहकारी कारण माना जाय, तो भी नहीं बनता, क्योंकि प्रयत्न सहित आत्मा के सहकार की अपेक्षा रखने वाली इन्द्रियों से इन्द्रियज्ञान की उत्पत्ति पाई जाती है।
शङ्का-समनस्व जीवों में सो ज्ञान की उत्पत्ति मनोयोग से ही होती है । समाषान-नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर केवलज्ञान से व्यभिचार आता है।
शंका-तो फिर ऐसा माना जाय कि समनस्क जीवों के जोक्षायोपशमिक ज्ञान होता है वह मनोयोग से होता है।
समाधान-यह कोई दोष नहीं, यह तो इष्ट ही है । शंका-मनोयोग से वचन उत्पन्न होते हैं, यह जो पहले कहा गया था, वह कैसे घटित होगा?
समाधान—यह शंका कोई दोषजनक नहीं है, क्योंकि 'मनोयोग से वचन उत्पन्न होता है' यहाँ पर मानस ज्ञान की 'मन' यह संज्ञा उपचार से रखकर कथन किया है।
१. "वचिजोगो प्रमच्चमोसवचिजोगो बीई दियः प्पडि जावसजोगिकेवलि ति ॥५३।।" [धवल पु. १ ३.२५७]। २. धवल पु. १ पृ. २८७ ।