Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२६०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २१६
___ गाथार्थ-पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव को जो कर्मों के ग्रहण में कारणभूत शक्ति है, वह योग है ।।२१६।।
विशेषार्थ-इस गामा में योग बन तहण का है। मन आत्म-प्रदेशों में कर्मों को। ग्रहण करने की शक्ति का नाम योग है। आत्मा में यह शक्ति स्वाभाविक नहीं है, किन्तु पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त संसारी जीव में उत्पन्न होती है। जिनके । पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म का उदय नहीं है, ऐसे चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिनदेव के योग का । अभाव हो जाता है और वे अयोगकेबली हो जाते हैं ।
जो संयोग को प्राप्त हो वह योग है ।' संयोग को प्राप्त होने वाले वस्त्र आदि के साथ व्यभिचार दोष नहीं पाता, क्योंकि वे आत्मधर्म नहीं हैं। यद्यपि कषाय प्रात्मधर्म है तथापि उसके साथ । भी व्यभिचार दोष नहीं पाता, क्योंकि कपाय कर्मों के ग्रहण करने में कारण नहीं पड़ती। वह तो। स्थितिबन्ध व अनुभागबन्ध में कारण है ।* अथवा प्रदेशपरिस्पन्द रूप प्रात्मा की प्रवृत्ति के निमित्त से कमों को ग्रहण करने में कारणभूत वीर्य की उत्पत्ति योग है । अथवा आत्मप्रदेशों का संकोचविकोत्र । योग है।
मणसा वचसा कारण चावि जुत्तस्स विरिय-परिणामो। जोवस्स प्परिणयोभो जोगो त्ति जिणेहि गिट्ठिो ॥॥
मन, वचन और काय के निमित्त से होने वाली क्रिया से युक्त प्रात्मा के जो बोर्यविशेष उत्पन्न होता है, वह योग है। अथवा जीव के प्रणियोग (परिस्पन्दरूप क्रिया) योग है। ऐसा जिन का ! उपदेश है। मन की उत्पत्ति के लिए जो परिस्पन्दरूप प्रयत्न होता है, वह मनोयोग है। वचन की। उत्पत्ति के लिए जो परिस्पन्द रूप प्रयत्न होता है, वह वचनयोग है। काय की क्रिया के लिए जो ! परिस्पन्द रूप प्रयत्न होता है वह काययोग है।
शङ्का-प्रयत्न बुद्धिपूर्वक होता है और बुद्धि मनोयोगपूर्वक होती है। ऐसी परिस्थिति में मनोयोग शेष योगों का अविनाभावी है, यह बात सिद्ध हो जानी चाहिए? अनेक प्रयत्न एक साथ होते हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है ?
समाधान-अनेक योग एक साथ नहीं हो सकते, क्योंकि कार्य और कारण इन दोनों की एक । काल में उत्पत्ति नहीं हो सकती।
मन, वचन और काय के अवलम्बन से जीवप्रदेशों में परिस्पन्द होना योग है। जीवप्रदेशों का जो संकोच-विकोच व परिभ्रमण होता है , वह योग कहलाता है।
१. "वुज्यत इति योगः ।" [धवल पु. १ पृ. १३६] । २. "ठिदि-अणुमागा कसायदो होति ।" [गो. क. गा, २५७] । ३. "मथवात्मप्रवृत्तेः कदिान निबन्धनवीर्योत्पादो योग: 1 अयवात्मप्रदेशानां सङ्कोचविकोचयोगः ।" [धवल पु. १ पृ. १४०] 'प्रात्मप्रवृत्तेसंकोचविकोचो योग.।" [धवल पु. ७ पृ. ६। ४. धवल पु. १ पृ. । १४०। ५. घघल पु. १ पृ. २७६ । ६. "मनोवाक्कायावष्टंभबलेन जीवप्रदेशपरिस्पन्दो योग इति ।" [धवल पु. ७ पृ ६] । ७. धवल पु. १० पृ. ४३७ ।