Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२८८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाया २१३-२१५ गाथार्थ-यावली के असंख्यातवें भाग से भाजित पत्य को सागर में से घटाने पर जो शेष रहे उतने बादरतेजस्काय जीव के अर्धच्छेद हैं। अप्रतिष्ठित प्रत्येक, प्रतिष्ठित प्रत्येक, वादर पृथिवीकायिक, बादरजलकायिक जीवों के अर्धच्छेदों का प्रमाण ऋम से पावली के असंख्यातवें भाग का दोबार, तीन बार, चार बार, पांच बार, पल्य में भाग देकर सागर में घटाने से जो लब्ध शेष रहता है, उतना-उतना है। बादरवायुकायिक जीवों के अर्धच्छेदों का प्रमाण पूर्णसागर प्रमाण है ।।२१३॥ यह प्रत्येक अर्धच्छेद राशि अपनी पूर्व-पूर्व राशि से पल्य के असंख्यातवें भाग उत्तरोत्तर अधिक है । अत: उत्तरोत्तर जीवों का प्रमाण अपने से पूर्व जीवों के प्रमाण से असंख्यात लोकगुणा है ।।२१४।। देय राशि के अर्धच्छेदों से भाजित इष्ट राशि के अर्धच्छेदों का प्रकृत बिरलन राशि में भाग देने से जो लब्ध प्राप्त हो उतनी बार इष्ट राशि को रखकर परस्पर गुणा करने से प्रकृत धन प्राप्त होता है ।।२१।।
विशेषार्थ-एक सागरोपम में से एक पत्य को ग्रहण करके और उस पल्य को ग्रावली के असंख्यातवें भाग से खंडित करके जो एकभाग लब्ध आवे उसको पृथक स्थापित करके शेष बहुभाग को उसी राशि में अर्थात् पल्य कम सागर में मिला देने पर बादरतेजकायिक राशि की अर्धच्छेदशलाकाएँ होती हैं । जो एकभाग पृथक् स्थापित किया था उसको फिर भी प्रावली के असंख्यातवें भाग से खंडित करो, बहुभाग को बादरतेजकायिक के अर्धच्छेदों में मिलाने पर बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति जीवों को अर्धच्छेद शलाकाएँ होती हैं। शेष एकभाग के पुनः पावली के असंख्यातवें भाग से खंडित कर बहुभाग को ग्रहण कर बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति के अर्धच्छेदों में मिलाने से बादरनिगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवगशि के अर्धच्छेदशलाकाएँ होती हैं। पुनः शेप एकभाग को प्रावली के असंख्यातवें भाग से खंडित कर बहुभाग को बादरनिगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक बनस्पतिकायिक जीवराशि के अर्धच्छेदों में मिलाने से बादर पृथिवीकायिक जीवराशि की अर्धच्छेदशलाकाएं होती हैं। शेष एक भाग को पुनः प्राबली के प्रसंध्यातवेंभाग से खंडित करके भाग को बादर पथिवीकायिक जीवराशि के अर्धच्छेदों में मिलाने से बादर जलकायिक जीव राशि की अर्धच्छेद शलाकाएं होती हैं। जो एकभाग शेष रहा था उसको बादर जलकायिक जीवराशि के अर्धच्छेदों में मिलाने से सम्पूर्ण एक सागर के अर्धच्छेद प्रमाण बादर वायुकायिक जीवराणि की अर्धच्छेद शलाकाएं होती हैं।
बादर तेजस्कायिक राशि की अर्धच्छेदशलाकारों का विरलन करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक को दो रूप करके परस्पर गुणित करने पर बादर तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न होती है । अथवा घनलोक के अर्धच्छेदों से बादर तेजस्कायिक राशि के अर्धच्छेदों के भाजित करने पर जो लब्ध प्राबे, उसे विरलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक के प्रति घनलोक को देकर परस्पर गुणित करने पर बादर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है। अथवा बादर तेजस्कायिक राशि के अर्धच्छेदों को बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर जीवों के अर्धच्छेदों में से घटाकर जो राशि शेष रहे उसे बिरलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक को दो रूप करके परस्पर गुणित करने से जो राशि उत्पन्न हो उससे बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर जीवों की राशि के भाजित करने पर वादर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है। अथवा. बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित प्रत्येक राशि के जितने अधिक अर्धच्छेद हों उतनी बार बादर वनस्पति अप्रतिष्ठित
१. घवन पु. ३ पृ. ३४४ ।