Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२८६/गो, सा. जीवकाण्ड
पाथा २१२
गुरणे हैं। असंख्यात लोक गुणाकार है। जिन अनन्तानन्त जीवों का साधारण रूप से एक ही शरीर होता है, उन्हें निगोदजीव कहते हैं। इस प्रकार साधारण और निगोद पर्यायवाची शब्द हैं। जितनी भी बादरनिगोदराशि है उसमें असंख्यात लोक का भाग देने पर एकभाग प्रमाण बादर निगोद पर्याप्त जीव हैं और शेष बहुभाग प्रमाण बादर निगोद अपर्याप्त जीव हैं। यह उपयुक्त अल्पबहुत्व से सिद्ध हो जाता है।
शा-बादरों में पर्याप्त जीवों के स्तोक होने का क्या कारण है ?
समाधान-बादर पुण्य प्रकृति है और पर्याप्ति भी पुण्य प्रकृति है। उक्त निगोविया जीवों में जिनके बादर और पर्यारित दोनों पुण्यप्रकृतियों का उदय हो, ऐसे जीव स्तोक होते हैं। यहाँ पर संचयकाल की विधक्षा नहीं है, किन्तु पुण्यप्रकृति की विवक्षा है।
प्रावलिप्रसंखसंखेगवहिदपदरंगुलेग हिदपदरं ।
कमसो तसतप्पुण्णा पुण्णूरगतसा अपुण्णा हु ।।२१२॥ गाथार्थ--पावली के असंख्यातवें भाग से भाजित प्रतरांगुल का जगत्प्रतर में भाग देने पर त्रस जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है और पावली के संख्यातवें भाग से भाजित प्रतरांगुल का जगत्प्रतर में भाग देने पर पर्याप्तत्रस जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है। सामान्य त्रस राशि में मे पर्याप्त त्रसों का प्रमारा घटा देने पर शेष अपर्याप्त प्रसों का प्रमाण है ।।२१२।।
विशेषार्थ—सकायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवों का प्रमाण पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों के प्रमाण के समान है।
शङ्का-द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों को एकत्र करने पर सकायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीवों का प्रमाण होता है। तव फिर उसकायिक लध्यपर्याप्तकों की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों को प्ररूपणा के समान कैसे हो सकती है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उभयत्र अर्थात् पंचेन्द्रिय लध्यपर्यातक और असकायिक नब्ध्य पर्याप्तक, इन दोनों का प्रमाण लाने के लिए प्रतरांगुल के असंख्यातवें भाग रूप भागाहार को देखबार इस प्रकार का उपदेश दिया है। अर्थ की अपेक्षा जो उन दोनों की प्ररूपणा में विशेष है, उसका गणधर भी निवारण नहीं कर सकते। अत: पंचेन्द्रियों के प्राधार से त्रस जीवों के प्रमाण का कथन किया जाएगा, क्योंकि दोनों में भागहार की समानता पाई जाती है ; जैसे
क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के द्वारा सुच्यंगुल के असंख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से और सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से जगत्प्रतर अपहृत होता है।
१. धवल पु. ३ पृ. ३७२३ २. "जेसिमवंताणंतजीवाणमेक्क चेव सरीरं भवदि साधारणस्येण ते रिणगोदजीवा भांति 1" धवल पृ. ३ पृ. ३५७ । ३. धवल पु. ३ पृ. ३६२ सूत्र १०२ । ४. धवल पु. ३ पृ. ३६३ । ५. धवल पु. ३ पृ. ३१४ सूत्र २ ।