Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२८४ / मो. सा. जीवकाण्ड
विशेषार्थ यहाँ 'अंगुल' शब्द कहा गया है, उससे प्रमाणांगुल का ग्रहण करना चाहिए।" उस प्रमाणांगुल के असंख्यातवें भाग का जो वर्ग अर्थात् प्रतरांगुल का असंख्यातवाँ भाग, जो पल्य के श्रसंख्यातवें भाग से प्रतरांगुल को भाग देने से प्राप्त हुआ, तद्रूप प्रतिभाग अर्थात् भागाहार या अवहारकाल है । इस अवहारकाल से बादर जलकायिक पर्याप्त जीवों के द्वारा जगत्प्रतर ग्रपहृत होता है ।
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गाथा २१०
मल्योपम के असंख्यातवें भाग सूच्यंगुल को भाजित करके जो लब्ध प्रावे उसको वर्गित करने पर प्रतरांगुल का असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है। यह बादर अपकायिक पर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है । इस बादर अकायिक पर्याप्तजीवों के अवहारकालको प्रावली के प्रसंख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त जीवों का अवहार काल होता है । इस बादर पृथिवी कायिक पर्याप्त जीवों के श्रवहारकाल को आवली के असंख्यात भागसे गुणित करने पर बारनिगोद-प्रतिष्ठित पर्याप्त जीवों का अवहारकाल होता है। इस बादर - निगोद-प्रतिष्ठित पर्याप्त जीवों के बहार काल को आवली के प्रसंख्यातवें भाग से गुरिणत करने पर बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवों का अवहार काल होता है। यहाँ अवहारकाल के उत्तरोत्तर अधिक होने का कारण यह है कि पूर्व पूर्ववर्ती अपनी-अपनी राशि बहुत पाई जाती है। इन अवहार कालों से जगत्प्रतर को भाजित करने पर अपने-अपने द्रव्य का प्रमाण प्राप्त होता है । 3
जितना - जितना भागाहार ( अवहार काल अर्थात् भाजक ) बढ़ता जाता है, उतना उतना ही लब्ध ( भाग्यफल) हीन होता जाता है । इस करणसूत्र के अनुसार बादर जलकायपर्याप्तजीवों का अवहारकाल रूप है, अतः वादर जलकाय पर्याप्त जीवों का प्रमाण अधिक है । बादर पृथिवीकाय पर्याप्त जीवों का अवहारकाल शावली के असंख्यातवें भाग गुरणा है अतः बादर पृथिवीकाय पर्याप्त राशि श्रावली के असंख्यातवें भाग से भाजित बादर जलकाय पर्याप्त जीवराशि प्रमाण है अर्थात् बादर जलकाय पर्याप्त जीवराशि को आवली के असंख्यातवें भाग से भाग देने पर जो प्रमाण प्राप्त हो, उतनी बादर-पृथिवोकाय पर्याप्त जीवराशि है। बादर - पृथिवीकाय पर्याप्त जीवों के अवहार काल सेवादर - प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवों का अवहार काल आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणा है अतः बादर पृथिवीकाय पर्याप्त जीवराशि को आवली के असंख्यातवें भाग से खंडित करने पर एक खंड प्रमारग बादर प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवराशि है । इसको भी पुन: श्रावली के प्रसंख्यातवें भाग से अपहृत करने पर बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि इसका अवहार काल पूर्व अवहार काल से ग्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणा है । इस प्रकार पूर्व - पूर्व अवहारकाल से उत्तरोत्तर अवहार काल श्रावली के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा होता जाता है । पूर्वपूर्व बादर-पर्याप्त जीवराशि की अपेक्षा उत्तरोत्तर बादर पर्याप्त प्रावली के असंख्यातव भाग प्रभाग श्रसंख्यातगुणी होन होती गई है ।
बिदा लिलोगारणम संवं संखं च तेउबाऊणं ।
पज्जतारण पमाणं तेहि विहीरगा अपज्जता ॥२१०॥
१. "एल्य अंगुलमिदि उत्ते पमाणांगुलं घेतदवं ।” [ धवल पु. ३ पृ. ३४६ ] । २. धवल पु. ३ पृ. ३४६ । ३. धवल पु. ३ पृ. ३५० ।