Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बाथा २०६
कायमार्गा/२८३
गाथार्य-सूक्ष्मकाय जीवों के संख्यातवेभाग अपर्याप्त जीव हैं और संख्यात बहुभाग प्रमाण पर्याप्त जीव हैं, क्योंकि सूक्ष्म लब्धिअपर्याप्त जीवों की आयु से सूक्ष्मपर्याप्त जीवों की आयु संख्यातगुणो है ।।२०।।
विशेषार्थ सूक्ष्म अपर्याप्त जीवों की संख्या से सूक्ष्म पर्याप्तजीवों की संख्या संख्यातगुणी है, दमोंकि अपनी राशि के संस्था एनाभा नपा अपर्याप्त जीव हैं और संख्यातवें बहुभाग प्रमाण पर्याप्त जीव हैं। एकभाग से बहुभाग संख्यात गुरणा है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव सूक्ष्मपृथिवीकायिक अपर्याप्तों से संख्यातगुणे हैं। संख्यात समय गुणाकार है। इसी प्रकार अपकायिक, तेजकायिक और वायुकायिक जीवों के विषय में जानना चाहिए।'
सूक्ष्म पृथिवीकायिक सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्मतेजकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक, सूक्ष्मवनस्पतिकायिक, सूक्ष्म निगोद जीव और उनके ही पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवों का काल सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्मएकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त के काल के समान है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव कितने काल तक होता है ? एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सूक्ष्मएकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभव ग्रहण प्रमाण है। पर्याप्तक जीवों की जघन्य आयु से लब्ध्यपर्याप्तक जीव की जघन्य आयु संख्यातगुणी हीन होती है। जघन्य काल में जघन्य जीवों का संचय और दीर्घकाल में अधिक जीवों का संचय होता है। जो अनुपात काल का है वही अनुपात संचित जीवों की संख्या का है। जैसे अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुगास्थान के काल से प्रमत्तसंयत छठे गुणस्थान का काल दुगुणा है अतः अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की संख्या से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या दुगुणी है। सूक्ष्म अपर्याप्तकों की आयु से सूक्ष्म पर्याप्तकों की प्रायु संख्यातगुणी है। इसी अनुपात से सूक्ष्मअपर्याप्तजीवराशि से सूक्ष्मपर्याप्तजीवराशि संख्यातगुणी है । गुणाकार का प्रमाण संख्यात समय है।
पल्लासखेज्जवहिदपदरंगुलभाजिदे जगप्पदरे ।
जलभूरिणपवादरया पुष्णा प्रावलिप्रसंखभजिदकमा ॥२०६३ गाथार्थ –पल्य के असंख्यातवें भाग से विभक्त प्रतरांगुल, उससे भाजित जगत्प्रतर प्रमाण बादर जलकायिक जीव हैं। इसको पावली के असंख्यात भाग से विभक्त करने पर पृथिवीकायिक बादर पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः उसको प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाग देने पर निगोद से प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक पर्याप्त जीवों का प्रमाण प्राप्त होता है, पुनः उसको पावली के असंख्यातवें भाग में भाग देने पर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति पर्याप्त जीवों का प्रमारण आता है ।।२०६।।
१. "सुहमपुतबिकाइयपज्जत्ता संखेज्जगुरगा। को गुणगारो ? संग्वेज्जस मया ।" [श्रवल पृ. ३ पृ. ३६७] । २. "एवं चाउ-तेउ-वाउणं जाणि ऊरण पत्तन्वं । “धवल पु. ३ पृ. ३६६]। ३. धवल पु. ४ पृ. ४०५ सूत्र १५१ । ४. धवल पु. ४ पृ. ३६४-३६५ सूत्र १२२, १२३, १२४ । ५. धबल पु. ४ पृ. ३९६ मूत्र १२५-१२६ । ६. घवल पु. ४ पृ. ३६६ सूत्र १२६ को टीका । ७. धवल पु. ३ पृ. ६०१