Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२६२/गो, सा, जीयकाण्ड
गाधा २१६
क्षायिक भाव है, क्योंकि आत्मस्वरूप से रहित योग की कर्मों में पप मे उत्पत्ति मानने में विरोष पाता है। योग घातिकर्मोदयजनिन भी नहीं है, क्योंकि घातिकर्मोदय के नष्ट होने पर भी मयोगकेवली में योग का सद्भाव पाया जाता है। योग अघातिकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि अधातिकर्मोदय के रह) पर भी प्रयोगकेवली में योग नहीं पाया जाता । योग शरीर नामकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि पुद्गलविपाको प्रकृतियों के जीव-परिस्पन्दन का काररंग होने में विरोध है ।
शङ्का-कार्मणशरीर पुद्गल विषाको नहीं है, क्योंकि उससे पुद्गलों के वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान प्रादि का आगमन आदि नहीं पाया जाता है। इसलिए योग को कामरण शरीर से उत्पन्न होने वाला मान लेना चाहिए ?
समाधान -नहीं, क्योंकि सर्वकर्मों का प्राश्रय होने से कार्मणशरीर भी पुदगलविपाकी ही है। इसका कारण यह है कि यह सर्व कर्मों का प्राश्रय या प्राधार है ।
शङ्का - काम णशरीर के उदय विनष्ट होने के समय में ही योग का विनाश देखा जाता है । इसलिए योग कार्मणशरीरजनित है, ऐसा मानना चाहिए ?
समाधान-नहीं, क्योंकि यदि ऐसा माना जाय तो अघातिकर्मोदय के विनाश होने के अनन्तर हो बिनष्ट होनेवाले पारिणामिक भव्यत्व भाव के भी प्रौदयिकापने का प्रसंग प्राप्त होगा।
इस प्रकार उपयुक्त विवेचन से योग के पारिणामिकपना सिद्ध हुआ। अथवा 'योग' यह पौयिक भाव है, क्योंकि शरीर नामकर्म के उदय का विनाश होने के पश्चात् ही योग का विनाश पाया जाता है। ऐसा मानने पर भव्यत्वभाव के साथ व्यभिचार भी नहीं पाता है, क्योंकि सम्बन्ध के विरोधी भव्यत्व भाव की कर्म से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है ?
योग कौनसा भाव है, षट्खण्डागम में एक अन्य विकल्प का कथन निम्न प्रकार है"क्षायोपशमिक लब्धि से जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होता है ।।
शङ्का-जीवप्रदेशों के संकोच और त्रिकोच अर्थात् विस्तार रूप परिस्पन्द 'योग' है। यह परिस्पन्द कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है, क्योंकि कर्मोदय से रहित सिद्धों के वह नहीं पाया जाता। प्रयोगकेवली में योग के अभाव से यह कहना उचित नहीं है कि योग प्रौदयिक नहीं होता, क्योंकि अयोगकेवली के यदि योग नहीं होता तो शरीर नामकर्म का उदय भी तो नहीं होता। शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला योग उस कर्मोदय के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा मानने से अतिप्रसंग दोष उत्पन्न होगा। इस प्रकार जब योग प्रौदयिक होता है तो योग को क्षायोषश मिक क्यों कहा जाता है ?
समाधान --ऐसा नहीं, क्योंकि जब शरीर नामकर्म के उदय से शरीर बनने के योग्य बहत से पुद्गलों का संचय होता है और बीर्यान्त राय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाव से ब उन्हीं स्पर्धकों के मत्वोपशम से तथा देशघाती स्पर्धकों के उदध से उत्पन्न होने के कारण क्षायोपश मिक
१. थ. पु. ५ पृ. २२५-२२६ । २. ध. पु. ७ पृ. ७५ ।