Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२७०/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १३३
होते हैं, किन्तु अनन्त जीव ही उत्पन्न होते हैं, यह जापर का पर्व है। मे। कन्धनबद्ध होकर ही उत्पत्र होते हैं, अन्यथा प्रत्येक शरीरवर्गणा और बादर व सूक्ष्म निगोद वर्गरंगा के अनन्न प्राप्त होने का प्रसंग पाता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसी वे पाई नहीं जाती ।' कहा भी है
बादरमुठुमरिणगोदा श्रद्धा पुट्ठा य एयमेएरण ।
ते हु अणंता जीत्रा मूलययूहल्लयादीहि ॥१२६॥ --बादरनिगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव ये परस्पर बद्ध और स्पष्ट होकर रहते हैं । तथा वे अनन्त जीव हैं जो मूली, यूअर और प्रार्द्रक आदि के निमित्त से होते हैं ।
एक शरीर में स्थित बादर निगोद जीव वहाँ स्थित अन्य बादर निगोद जीवों के साथ तथा एक शरीर में स्थित सुक्ष्म निगोद जीव वहाँ स्थित अन्य सूक्ष्म निगोद जीवों के साथ बद्ध अर्थात समवेत होकर रहते हैं। वह समवाय देशसमवाय और सर्वसमवाय के भेद से दो प्रकार का है। वे देशसमवाय से बद्ध होकर नहीं रहते, किन्तु परस्पर सब अवयवों से स्पष्ट होकर ही वे रहते हैं; अबद्ध और अस्पृष्ट होकर वे नहीं रहते।
शङ्का-इस प्रकार अवस्थित होकर कितने जीव रहते हैं ?
समाधान-इस प्रकार अवस्थित होकर वे संख्यात या असंख्यात नहीं होते, किन्तु वे जीव अनन्त होते हैं।
शङ्खा -वे किस कारण से होते हैं ?
समाधान - भूली, थूप्रर और आर्द्रक आदि कारणों से होते हैं। यहाँ पर 'आदि' शब्द से वनस्पतियों के अन्य भेद भी ग्रहण करने चाहिए। इसके द्वारा बादर निगोद की योनि कही गई है, सूक्ष्म निगोद की नहीं, क्योंकि जल-थल और आकाश में सर्वत्र उनकी योनि देखो जाती है। तात्पर्य यह है कि मूली, थूअर और प्रार्द्रक प्रादि वनस्पतियों के शरीर बादर निगोद की योनि होते हैं।
इसलिए मूली, थर और आर्द्रक आदि तथा मनुष्य प्रादि के शरीरों में असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरोर होते हैं। वहाँ एक-एक निगोद शरीर में अनन्तानन्त बादरनिगोद जीत्र और सूक्ष्म निमोद जीव प्रथम समय में उत्पन्न होते हैं। वहीं पर द्वितीय समय में असंख्यात गुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार पावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल व्यतीत होने तक असंख्यात गुणे हीन श्रेणीरूप से निरन्तर जीव उत्पन्न होते हैं। पुनः एक, दो और तीन समय से लेकर उत्कृष्ट रूप से आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाग काल व्यतीत होने तक अन्तर देकर पुनः एक, दो और तीन समय से लेकर उत्कृष्ट रूप से प्रावली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक जीव निरन्तर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सान्तर-निरन्तर कम से तब तक जोव उत्पन्न होते हैं, जब तक उत्पत्ति सम्भव है। इस प्रकार इस क्रम से उत्पन्न हुए बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव एक शरीर में बद्धस्पष्ट होकर रहते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
१. घबल पु. १४ पृ. २३१। २. धवल पु. १४ पृ. २३१ ।