Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२७४ गो. मा. जीवकारह
गाथा १६५
निन्वनिगोद का लक्षण अस्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्तो तसारण परिणामो ।
भावकलंक-सुपउरा गिगोदवासं रण मुचंति ॥१६॥ गाथार्थ-जिन्होंने बस भाव को नहीं प्राप्त किया है, ऐसे अनन्तजीव हैं, क्योंकि वे भावकन्कप्रचुर हैं इमलिये निगोदवारा को नहीं त्यागते ॥१६७।।
विशेषार्थ-जिन्होंने अतीतकाल में कदाचित भी बस परिणाम नहीं प्राप्त किया है ऐसे अनन्तजीव नियम से है। अन्यथा संमार में भव्य जीवों का प्रभाव प्राप्त होता है। उनका प्रभाव है नहीं, क्योंकि उनका (भव्य जीवों का) अभाव होने पर प्रभव्य जीवों का भी अभाव प्राप्त होता है। और वह भी है नहीं, क्योंकि उनका (भव्य और अभव्य जीवों का) अभाव होने पर संसारो जीवों का भी प्रभाव प्राप्त होता है (क्योंकि संसारी जीव भव्य व अभव्य दो ही प्रकार के हैं और संसारी जीवों का प्रभाव भी नहीं है क्योंकि संसारी जीवों का अभाव होने पर असंसारी (मुक्त) जीवों के भी प्रभाव का प्रसंग पाता है।
शङ्का-संसारी जीवों का अभाव होने पर असंसारी (मुक्त) जीवों का प्रभाव कैसे सम्भव है ?
समाधान - संसारी जीवों का अभाव होने पर प्रसंसारी जीव भी नहीं हो सकते, क्योंकि सब सप्रतिपक्ष पदार्थों की उपलब्धि अन्यथा नहीं बन सकती ।'
इसलिए सिद्ध होता है कि अतीतकाल में असभाव को नहीं प्राप्त हए अनन्त जीव हैं। यहां पर उपयुक्त गाथा इस प्रकार है
सत्ता सव्वपयस्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया !
भंगुष्पायधुबत्ता सम्पतिवरखा हवइ एक्का ॥१८॥ —मत्ता सब पदार्थों में स्थित है, विश्वस्वरूप है, अनन्तपर्यायवाली है, व्यय-उत्पाद और ध्रु वत्व से युक्त है, सप्रतिपक्ष है और एक है।
वे त्रसपरिणाम को क्यों नहीं प्राप्त हुए हैं। इसके समाधान में सुत्रगाथा के उत्तरार्ध में कहा है : 'भावकलंकसुपजरा' अर्थात भावकलङ्क (संमलेश); उसकी वहाँ अत्यन्त प्रचुरता है। एकेन्द्रिय जाति में उत्पत्ति का हेतु (भावकलंक) यह उक्त कथन का तात्पर्य है। उसकी प्रचुरता होने से यहाँ के जीवों ने निगोदवास को नहीं त्यागा है अर्थात् नहीं छोड़ा है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस प्रकार नित्य निगोद जीवों का लक्षण भी कहा गया है।
१. धवल पु. १४ पृ. २३३ पर मूनगाथा १२७ है किन्तु 'सूपउरा' के स्थान पर 'भपउरा' है। मुलाचार पर्याप्त्यधिकार गा. १६२ पृ. २०२; धवल पु. १ पृ. २७१, पु. ४ पृ. ४.७७; प्रा.पं.सं. गा. ८५ पृ. १६ । २. "जेहि अदीदकाले कदचि वि तस परिणामो गण पत्तो ते तारिसा प्रणेता जीवारिणयमा अस्थि ।" घवल पू. १४ पृ. २३३ । ३. “सवस्स सप्पडि वक्रवस्म उवलंभण्णहाणुवदत्ती दो।" [धवल पु. १४ पृ. २३४] । ४. धवल पु. १४ पृ. २३४, पंचास्तिकाय गा. ८1 ५. धवल पु. १४ पृ. २३३-२३४ ।