Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २००
कायमामंगा/२७७
लोक के बहुमध्य प्रदेशों में अस नाली उसी प्रकार विद्यमान है जिस प्रकार वृक्ष के मध्य में सारभूत लकड़ी विद्यमान रहती है। यह अस नाली एक राजू लम्बी, एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊँची है जिसका क्षेत्रफल (१x१४१४) १४ धनराज है। लोक ३४३ धनराजू है। उसमें मात्र १४ धनराजू प्रमाण वाली मनाली है, अर्थात् उस असनाली में असजीव पाये जाते हैं। शेष (३४३-१४) ३२६ धनराजू में मात्र स्थावर जीव ही प्राप्त होते हैं. त्रस नहीं । उपपादमारशान्तिक समुद्घात एवं केवली समुद्रात वाले सजीवों के प्रात्मप्रदेशों का सत्व अवश्य ३२६ घनराजू में पाया जाता है।
शङ्का-उपपाद के समय त्रस जीव असनाली से बाहर किस प्रकार रहते हैं ?
समाधान-कोई वायुकायिक श्रमनाली से बाहर वातवलय में स्थित है। उसने द्वीन्द्रिय आदि अस पर्याय की आयु का चन्ध किया। वायुकायिक जीव आयु के अन्तिम समय में मरा करके अगले समय में त्रस नामकर्म का उदय आ जाने से त्रस हो गया, किन्तु वसनाली तक आने में एक समय लगेगा। वहीं विग्रहगति का प्रथम समय है। इस प्रकार असनाली से बाह्य एकेन्द्रिय पर्याय छोड़कर बस में उत्पन्न होने वाले के अस आयु के प्रथम समय की उपपाद अवस्था में श्रम जीव असनाली से बाहर रहता है।
शङ्का--मारणान्तिक समुद्घात में त्रसजीव सनाली के बाह्य भाग में क्यों जाता है ?
समाधान--सनाली में स्थित किसी अस जीव ने तनुवातवलय में उत्पन्न होने के लिए वायुस्थावर काय का बन्ध करके अस प्रायु के चरम अन्तर्मुहूर्त में आगामी भव के उत्पत्तिस्थान तनुवातघलय को स्पर्श करने के लिए मारणान्तिक समुद्घात किया । जिसके कारण उस बस जीव के आत्मप्रदेश प्रसनाली से तनुवातवलय तक फैल गये। इस प्रकार त्रसजीव के आत्म-प्रदेश असनाली से बाहर स्थित हो जाते हैं।
शङ्का-केवली समुद्घात की किन अवस्थाओं में प्रसनाली से बाहर आत्मप्रदेश रहते हैं ?
समाधान-कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण तथा संकुचित होते हुए पुनः प्रतर व कपाट अवस्थाओं के पांच समयों में केवली भगवान के प्रात्मप्रदेश असनाली से बाहर रहते हैं। केवलीसमुद्घात का स्वरूप पूर्व में कहा जा चुका है ।
वनस्पतियों की भांति अन्य जीवों में भी प्रतिष्टित-प्रतिष्ठित भेद पुढवीआदिचजण्ह केवलियाहारदेवरिपरयंगा।
अपदिट्टिदा रिणगोवेहि पदिदिदंगा हवे सेसा ॥२००।। गायार्थ-पृथिवी आदि चार स्थावरका यिकों का शरीर, केवलियों का शरीर, आहारक शरीर, देव व नारकियों का शरीर अप्रतिष्ठित है, शेष जीवों के शरीर निगोद से प्रतिष्ठित होते है ।।२०।।
१. त्रिलोकसार पृ. १५४ ।
२. सिद्धान्तवक्रवर्ती श्रीमदभयचन्द्र कृत टीका पृ. ४४४ ।