Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १६३
काय मार्ग/२६
शङ्का - भिन्न काल में उत्पन्न हुए जीवों का एकसाथपना कैसे बन सकता है ?"
समाधान नहीं, क्योंकि एक शरीर के सम्बन्ध से उन जीवों के भी एकसाथपना होने में कोई विरोध नहीं आता ।
शङ्का - एक शरीर में बाद में उत्पन्न हुए जीव हैं, ऐसी अवस्था में उनकी प्रथम समय में ही उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि प्रथम समय में उत्पन्न हुए जीवों के अनुग्रहण का फल बाद में उत्पन्न हुए जीवों में भी उपलब्ध होता है, इसलिए एक शरीर में उत्पन्न होने वाले सत्र जीवों की प्रथम समय में ही उत्पत्ति इस न्याय के अनुसार बन जाती है ।
इस प्रकार दोनों प्रकारों से एक साथ उत्पन्न हुए जीवों के उन के शरीर की निष्पत्ति सम अर्थात् म से ही होती है तथा एक साथ अनुग्रहण होता है, क्योंकि उन का श्रनुग्रहण समान है । जिस कारण से सब जीवों के परमाणु पुद्गलों का ग्रहण समगं अर्थात् प्रक्रम से होता है, इसलिए आहार, शरीर, इन्द्रियों की निष्पत्ति और उच्छ्वास- निःश्वास की निष्पत्ति समगं अर्थात् प्रक्रम से होती है । अन्यथा अनुग्रह के साधारण होने में विरोध प्राता है। एक शरीर में उत्पन्न हुए अनन्त जीवों की चार पर्याप्तियाँ अपने-अपने स्थान में एक साथ समाप्त होती हैं, क्योंकि अनुग्रहण साधारण रूप है । यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
जस्थेवकुमरद्द जीवो तत्थ दु मरणं हवे प्रणंताणं ।
areas जत्थ एक्को बक्कमणं तत्थणंताणं ॥ १६३ ॥ *
गाथार्थ -- जिस शरीर में एक जीव मरता है वहाँ अनन्त जीवों का मरण होता है और जिस शरीर में एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती है ।। १२३ ।।
विशेषार्थ - जिस शरीर में एक जीव मरता है वहाँ नियम से अनन्त निगोद जीवों का भर होता है ।
शङ्का ---इस स्थल पर अवधारण कहाँ से होता है ?
समाधान-गाथासूत्र में आये हुए 'दु' शब्द का अवधारण रूप ग्रर्थ के साथ सम्बन्ध है ।
संख्यात, असंख्यात या एक जीव नहीं मरते हैं, किन्तु निश्चय से एक शरीर में निगोदराशि के अनन्त जीव ही मरते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । तथा जिस निगोद शरीर में एक जीव arraft अर्थात् उत्पन्न होता है उस शरीर में नियम से अनन्त निगोद जीवों की 'बक्कमणं' अर्थात् उत्पत्ति होती है। एक संख्यात और प्रसंख्यात जीव एक निगोदशरीर में एक समय में नहीं उत्पन्न
१. धवल पु. १४ १ २२६ २. धवल पु. १४ पु. २३० । ३. धवल पु. १४ पृ. २३० पर यह मूलगाथा १२५ है किन्तु ' जत्थेव ' के स्थान पर 'जस्थेउ' तथा 'हवे' के स्थान पर 'भये' है । घथल पु. १ पृ. २७०; प्रा. पं. सं. पू. १७
गाथा ८३ ।