Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १६२
कायमार्गणा/२६७
'पारण' शब्द का अर्थ उच्छ्वास है और 'अपाण' शब्द का अर्थ निःश्वाम है।' जन आनापान का ग्रहण अर्थात् उपादान सब जीवों के साधारण अर्थात् सामान्य है।
शङ्का-किन जीवों के साधारण है ?
समाषान-साधारण जीवों के साधारण है। गाथासूत्र में 'साहारण जीवाणं' शब्द के द्वारा ऐसा कहा गया है।
शङ्का-साधारण जीव कौन है ? समाधान -एक शरीर में निवास करनेवाले जीब साधारण हैं ।
अन्य शरीरों में निवास करनेवाले जीवों के उनसे भिन्न शरीर में निवास करने वाले जीवों के साथ साधारणता नहीं है, क्योंकि उनमें एक शरीर के आवास से उत्पन्न हुई प्रत्यासत्ति का अभाव है। इसका अभिप्राय यह है सबसे जघन्य पर्याप्तिकाल के द्वारा यदि पहले उत्तपन्नए निगोद जीव शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आहारपयोप्ति और उच्छवासनिःश्वासपर्याप्ति से पर्याप्त होते हैं तो उसी शरीर में उनके साथ उत्पन्न हुए मन्द योगवाले निगोद जीव भी उसी काल द्वारा इन पर्याप्तियों को पूरा करते हैं, अन्यथा पाहारग्रहण प्रादि का साधारणपना नहीं बन सकता। यदि दीर्घकाल के द्वारा पहले उत्पन्न हुए जीव चारों पर्याप्तियों को प्राप्त करते हैं तो उसी शरीर में पीछे से उत्पन्न हुए जीव उसी काल के द्वारा उन पर्याप्तियों को पूरा करते हैं। यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।
शंका-शरीरपर्याप्ति और इन्द्रियपर्याप्ति ये सबके साधारण हैं, ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि गाथासूत्र में 'पाहार' और 'पानापान' पद का ग्रहण देशामर्षक है, इसलिए उनका भी इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है।
साहारणागि जेसिं पाहाहस्सास-काय-पाणि ।
ते साहारण-जीवा ताणंत-प्पमारगाणं ॥१२६॥ -जिन अनन्तानन्त जीवों का पाहार, श्वासोच्छवास, शरीर और आयु साधारण होती है वे साधारणकायिक जीव हैं। एक समय में एक साय उत्पन्न होने वाले अनन्तानन्त सव साधारण जीवों 1 की आयु समान होती है, अर्थात् हीनाधिक नहीं होती।
एयस्स अणुग्गहणं बहरण साहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहरवं समासदो तं पि होवि एयस्स ॥१२३॥
--एक जीव का जो अनुग्रहण अर्थात् उपकार है वह बहुत साधारण जीवों का है और इसका भी है। तथा बहुत जीवों का जो अनुग्रहण है वह मिलकर इस विवक्षित जीव का भी है।
१. धवल पु. १४ पृ. २२६ । २. धवल पु. १४ पृ. २२७ । ३. धवल पु. १४ पृ. २२८ । ४. स्वामिकार्तिकेयामुप्रेक्षा । ५. धवल पु. १४ पृ. २२८ ।