Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा १६१
कायमार्गा/२६५
विशेषार्थ अपनी प्राचारवृत्ति में किया है। इतना विशेष है कि वहाँ जहीरुक" के उदाहरण माप मंजीठ [मंजिष्ठ] आदि वनस्पतियाँ कही हैं । 4 ... पहील्ह विचले होरूम बास बस्य वही वहं पुनः सूत्राकाराविजितं मंजिष्ठाविकम् । अब इसी गाथा का सोदाहरण खुलासा किया जाता है---
गृहसिर--अर्थात् जिन प्रत्येक शरीर वनस्पतियों की बहिःस्नायुक अदृश्य हो अर्थात् बाह्य लकीर धारी जैसी अहण्य हो (बाहरी लम्बी लकीर दिखाई न देतो हो) वे गूढसिर वनस्पतियों हैं। ककड़ी, तरोई, भिगी आदि पर बाह्य लम्बी लकीरें स्पष्ट नजर अाती हैं, पर कच्ची अवस्था में ये नहीं दिखतीं। गूढसंधि--जिन प्रत्येकवनस्पतियों में सन्धि के बीच में छेहा प्रकट न हुआ हो जैसे नारंगी, दाडिम यादि में पतला पीला छेहा दो भागों के बीच में होता है किन्तु ज्यादा कच्ची अवस्था में वह छेहा प्रकट नहीं होता, अथवा जिनमें फाँक नहीं पड़ी हों जैसे कच्चे सन्तरे, नारंगी आदि में, चे गूढ संधि हैं। गूढ़पर्व--पर्व गांठ को कहते हैं जैसे गन्ने, बाँस आदि को दो पोरियों के बीच में बहुत कड़ी गांठ होती है। जिन प्रत्येक वनस्पतियों में वह गाँठ प्रकट नहीं हुई हो वे गूढपर्व हैं। इस
प्रकार ऐसी कच्ची अवस्था में (जबकि ये सिरा, सन्धि या पर्व दिखते नहीं) गूढ़सिरा, गुढ़सन्धि और । गढ़पर्व ये तीनों प्रकार की प्रत्येक वनस्पतियाँ साधारण होती हैं। सप्रतिष्ठित प्रत्येक के आश्रय बादर । साधारण अर्थात् निगोद रहता है, अत: आधार में प्राधेय का उपचार करके सप्रतिष्ठित प्रत्येक । बनस्पति को साधारण कहा जाता है। समभंग-जिन प्रत्येक वनस्पतियों के भंग (टुकड़े) करने । पर सदृश छेद हो जायें जैसे चाकू आदि से टुकड़े करने पर समान भाग होते है और परस्पर तन्तु भी
न लगा रहे तो वे समभंग वनस्पतियाँ हैं। ये भी साधारण अर्थात् सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतियाँ है। छिनरह-जो काटने पर भी उग जाएँ वे छिन्न रुह प्रत्येकवनस्पतियां हैं जैसे पालू आदि। ये भी साधारण अर्थात् सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पतियाँ हैं। इनसे विपरीत लक्षण वाली अगूढ़सिरा, अमूलसन्धि, अगूढपर्व, असमभंग, छिन्न-अरूह; ये बनस्पतियाँ अप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं । यथा- नारियल, इमली, ताल-वृक्ष का फल, आम्र आदि ।
साधारप जीवों का स्वरूप साहारणोदयेण रिणगोदसरीरा हवंति सामण्णा ।
ते पुरण दुविहा जीवा बावरसुहमात्ति विष्णेया ॥१६१॥ गाथार्थ साधारण नामकर्मोदय से निगोदशरीर बाला साधारण वनस्पतिकायिक जीव होता है । ऐसे जीव बादर व सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के होते हैं ॥१६१॥
विशेषार्थ-- स्थावर नामकर्म के उत्तरोत्तर भेदस्वरूप साधारण नामकर्म के उदय से जीव साधारण-वनस्पति होता है। उस जीव का निगोदशरीर अर्थात् साधारण शरीर होता है ।
शङ्का-साधारण शरीर कौनसा होता है ?
समाधान-जिन अनन्त जीवों का भिन्न-भिन्न शरीर न होकर, समान रूप से एक शरीर पाया जाता है, वे साधारणशरीर जीव हैं।' १. धवल पु. १ पृ २६६ ।