Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२६४ / गो. मा. जीवकाण्ड
गाथा १८८-११०
विशेषार्थ - मूलबीज, अग्रवीज, पर्ववीज, कन्दबीज, स्कन्धवीज, बीजरूह अर्थात् जीव की
के प्रधानों में जिनकी अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट नहीं हुई है। जल, पृथिवी, वायु व ऋतु आदि का निमित्त मिलने पर वही जीव, जो पहले उस बीज में था, या अन्य जीव गत्यन्तर से ग्राकर उस बीज में उपजता है । मुलादिक, जो आगम में प्रतिष्ठित प्रत्येक प्रसिद्ध हैं, वे भी शरीरग्रहण के समय या अन्तर्मुहूर्त काल तक अप्रतिष्ठितप्रत्येक रहती हैं । अन्तर्मुहूर्त पश्चात् उनके श्राश्रय निगोदजीव हो जाते हैं तब वे प्रतिष्ठितप्रत्येक हो जाती हैं ।"
श्री मात्रचन्द्र विद्यदेव कृत तीन गाथाओं में प्रतिष्ठित प्रप्रतिष्ठित का विशेष लक्षण गूढ सिरसंधिपन्नं समभंग महीरुहं च छिण्णरुहं । साहार सरीरं तव्विधरीयं च पत्तेयं ॥ १८८॥ मूले कंदे छल्लीपवालसाल बलकुसुमफलबोजे । समभंगे सदिगंता असमे सदि होंति पत्तेया ॥ १८६॥ कंदस्स व मूलस्स व सालखंदस्स वावि बहुलतरी । छल्ली सामंतजिया पत्तेयजिया तु तणुकदरी ॥ १६०॥ *
गाथार्थ - जिनकी स्नायु रेखाबन्ध और गाँठ प्रकट हों, जिनका [ भंग करने पर ] समान भंग हो और दोनों भंगों में परस्पर ही रुक-अन्तर्गत सूत्र तंतु नहीं लगा रहे तथा छिन्न करने पर भी जो उग जावे उसे साधारण वनस्पति कहते हैं और इससे विपरीत को प्रत्येकवनस्पति कहते हैं ॥ १८८ ॥ जिन वनस्पतियों के मूल कन्द, त्वचा, नवीन कोंपल ग्रथवा अंकुर, क्षुद्रशाखा ( टहनी), पत्र, फूल, फन्न तथा बीज; इनको तोड़ने से समान भंग अर्थात् बराबर-बराबर दो टुकड़े हों, बिना ही ही रुक के भंग हो जाय उनको सुप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं। इसके विपरीत जिनका भंग समान न हो उनको प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं ॥१८६॥ जिस बनस्पति के कन्द, मूल, क्षुद्रशास्खा या स्कन्ध ( तना) की छाल मोटी हो, उसको ग्रनन्तजीय संप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं । जिसकी छाल पतली हो उसको अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं ||१०||
विशेषार्थं स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा १२८ कोटीका में पृष्ठ ६६ पर पण्डित कैलाशचन्द्रजी ने लिखा है कि जिस प्रत्येक वनस्पति की बारियाँ, फाँकें और गांठें दिखाई न देती हों, जिसे तोड़ने पर खट से बराबर-बराबर दो टुकड़े हो जाँय और बीच में कोई वार वगैरह न लगा रहे तथा जो काट देने पर भी पुनः उग जाए वह साधारण अर्थात् संप्रतिष्ठितप्रत्येक है। यहाँ सप्रतिष्ठिप्रत्येक शरीर वनस्पति को साधारण जीवों का श्राश्रय होने से साधारण कहा है। जिस वनस्पति में उक्त बातें न हों अर्थात् जिसमें धारियाँ आदि स्पष्ट दिखाई देती हों, तोड़ने पर समान टुकड़े न हों, टूटने पर तार लगा रह जाए उस वनस्पति को प्रतिष्ठित प्रत्येकशरोर कहते हैं। मूलाचार में पंचाचाराधिकार की गाथा २१६ जीवकाण्ड की उक्त गाथा १६ के समान है। वहां भी वसुनन्दि सिद्धान्तवर्ती ने ऐसा ही
१. श्रीमदन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती कृत टीका अनुसार । रूप है। ३. ये तीनों गाथाएँ स्वा का. अनु. गा. १२० की
२. यही गाथा भूलाचार अधिकार ५ में २१६वीं गाथा टीका में पृ. ६६ पर माई हैं। ( रायचन्द्र ग्रन्थमाला]