Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२६६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा १६२
शन-भिन्न-भिन्न जीवों से पृथक-पृथक बँधे हुए पुद्गल बिपाकी होने से पाहार-वर्गणामों के स्कन्धों को शरीर के साकार रूप से परिशमन कराने में कारण रूप और भिन्न-भिन्न जीवों को भिन्नभिन्न फल देनेवाले ग्रौदारित नोकर्मस्कन्धों के द्वारा अनेक जीवों के एक शरीर कसे उत्पन्न किया जा सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि जो एकदेश में अवस्थित हैं और परस्पर संबद्ध जीवों के साथ समवेत हैं, ऐसे पुद्गल वहाँ पर स्थित सम्पूर्ण जीवसम्बन्धी एक शरीर को उत्पन्न करते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं पाता क्योंकि साधारण रूप कारण से उत्पन्न हुआ कार्य भी साधारण होता है। क्योंकि कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, इसका निषेध नहीं किया जा सकता ।'
शङ्का-निगोद किसे कहते हैं ?
समाधान-नि' नियनामनन्सजीवानामेकामेव, 'गो' भूमि, क्षेत्र, निवास, 'द' ददातीति निगोदम् अर्थात् जो एक सीमित स्थान में अनन्तानन्त जीवों को स्थान देता है, वह निगोदशरीर है ।'
साहारगमाहारो साहारणमाएपारणगहणं च ।
साहारणजीवाणं साहारणलक्खरणं भरिणयं ॥१९॥ गायार्थ—साधारण आहार और साधारण उच्छ्वास-निःश्वास का ग्रहण यह साधारण जीवों का साधारण लक्षण कहा गया है ।।१९२।।
विशेषार्थ—इस सूत्र गाथा द्वारा शरीरी और शरीर दोनों का ही लक्षण कहा गया है, क्योंकि एक के लक्षण का ज्ञान होने पर दूसरे के लक्षण का भी ज्ञान हो जाता है।
शरीर के योग्य पुद्गल स्कन्धों का ग्रहण करना आहार कहलाता है। वह साधारण अर्थात् सामान्य होता है।
शंका - एक जीव के द्वारा ग्रहण किया गया पाहार उस काल में वहाँ अनन्त जीवों का कैसे हो सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि उस पाहार से उत्पन्न हुई शक्ति का बाद में उत्पन्न हुए जीवों के उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही ग्रहण हो जाता है ।
शङ्का–यदि ऐसा है तो 'माहार साधारण है' इसके स्थान में 'ग्राहारजनित शक्ति साधारण है ऐसा कहना चाहिए?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कार्य में कारण का उपचार कर लेने से आहारजनित शक्ति को भी पाहारसंज्ञा सिद्ध होती है 14
१. धवल पु. १ पृ. २७० । २. स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा संस्कृत टीका पृ. ६६ । ३. धबल पु. १ पृ. २७० व गु. ३ पृ. ३३२ ; प्रा. पं. सं. पृ. १७ गा. ८२; धवल पु. १४ पृ. २२२ पर यह मूल गाथा १२२ है। ४. धवल पु. १४ पृ. २२६ । ५. जयधवल पु. १४ पृ. २२७ ।